
Travelogue: ‘कैमरे में कैद किया चीता और गुब्बारे से देखा जंगल का नजारा’
तृप्ति पांडेय
पर्यटन और संस्कृति विशेषज्ञ
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आखिरकार कूदती-फांदती हमारी जीप मसाई मारा में उस पेड़ तक पहुंची, जहां जीपों की भीड़ लगी थी। लोगों के चेहरों के हाव-भाव और कैमरों के शटर की आवाज बता रहे थे कि चीता अपने शिकार के साथ बैठा हुआ था। सवाल था, अब हमारी जीप को कैसे लगाया जाए कि हम भी चीते का चेहरा देख सकें। हमारा ड्राइवर अपने तरीके से बाकी ड्राइवरों से जगह बनाने के लिए बात कर रहा था और अच्छी बात यह कि एक-दूसरे के लिए जगह बनाने की समझ उनमें होती है। फिर जंगल के वार्डन भी निरीक्षण करते रहते हैं। पर जैसा अक्सर होता है कि फिल्ममेकर्स और उनके सहयोगी जंगल पर अपना अधिकार मान लेते हैं तब वे पर्यटक काम आते हैं जो उन नजारों का दीदार पहले भी कर चुके होते हैं और खुद आपको जगह देते हैं। बाकी काम चालक की सोच-समझ करती है।
हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ और तब वह पल आ ही गया जब चीते ने हमारी ओर देखा। उसकी आंख से लेकर मुंह तक जाती दो काली धारियां उसकी खूबसूरती को बढ़ाती हैं। इन्हें ‘टियर लाइन’ यानी अश्रु रेखा कहते हैं। मैंने जयपुर के चीते की सबसे पहली जो तस्वीर बचपन में देखी थी उसे इन धारियों की वजह से ही कभी भुला नहीं सकी। यह याद उस रियासत काल से जुड़ी है, जब चीता पाला जाता था। अश्रु रेखाओं का अर्थ यह नहीं कि उसकी आंख से आंसू बहते रहते हैं। असल में बड़ी बिल्लियों में चीता ही ऐसा है जो दिन में शिकार करता है। ये रेखाएं सूरज की चमक को कम करती हैं। एक तरह से देखें तो प्रकृति ने चीते को अपनी तरह का अनूठा धूप का चश्मा दिया है।
तो हमारे चीते ने एक हिरण का शिकार किया था। मन भर के खाने के बाद उसने हमें जी भर के तस्वीरें खींचने का मौका दिया। जब रोशनी कम होने लगी तब हम रिसॉर्ट के लिए रवाना हुए। करीब दो घंटे बाद हम पहुंचे सेंकचुरी ओलोनाना जो कि सघन पेड़ों की छांव में झील के किनारे पर था। इस रिसॉर्ट के लगभग सभी कर्मचारी स्थानीय मसाई जनजाति के हैं। जिस तरह से उन्हें प्रशिक्षित कर केन्या के वन्य पर्यटन से जोड़ा गया है वह अपने आप में एक बड़ा उदाहरण है। उसके मैनेजर ने मुझे बताया कि उन्होंने अपनी नौकरी बतौर वेटर शुरू की थी। तब मुझे लगा कि राजस्थान में विरासत और ग्रामीण पर्यटन की तमाम घोषणाएं और हेरिटेज होटल आज भी ऐसी मिसाल नहीं पेश कर पाए, कारण वहां काम करने वाले ज़्यादातर बाहर के ही लोग हैं और उन्हें बस क्षेत्रीय वेशभूषा पहना दी जाती है।
हम तीनों बहनें उस कोटेज में ठहरे, जिसमें दो कमरे थे और बालकनी उस झील की ओर थी जिसमें दरियाई घोड़ों का दिन-रात आना-जाना लगा रहता था। अगली सुबह जल्दी उठ कर गुब्बारे में उड़ान भरनी थी। क्या इंतजाम था! शुरुआत सभी यात्रियों को उड़ान संबंधी निर्देशों से की जाती है। इतने बड़े गुब्बारे में मेरी वह पहली यात्रा थी। टोकरी में आप पहले लेटते हैं फिर गैस भरने और गुब्बारे के ऊंचा होते ही टोकरी सीधी हो जाती है मतलब कि आप खड़े हो जाते हैं। हवा में तैरते उस गुब्बारे से जंगल का जो नजारा दिखाई देता है उसे भुलाया नहीं जा सकता। गुब्बारे का नीचे आना और टोकरी से बाहर निकलना और भी ज्यादा रोमांचक लगा। बाहर आने पर मेहमानों के लिए शैम्पेन नाश्ते का इंतजाम होता है।
इस परंपरा का गुब्बारे की उड़ान से संबंध का अपना इतिहास है जो हमारे उड़ान चालक ने हमें सुनाया। 18वीं सदी में जब पहली बार यहां गुब्बारे ने उड़ान भरी, तब लोगों ने उसे डरावना दैत्य समझा। उनके डर को दूर करने के लिए चालक दल ने साथ लाई गई शैम्पेन को उस खेत के किसानों के साथ बांट कर उड़ान की सफलता का जश्न मनाया।
सफलता का वह जश्न अब यात्रियों के साथ मनाया जाता है, जिसके पहले एक कविता पढ़ी जाती है जिसे मैं हिंदी में सुना रही हूं द्ग ‘हवाएं अपने कोमल स्पर्श से तुम्हारा स्वागत करती हैं, सूरज ने अपने गर्म हाथों से तुम्हें आशीर्वाद दिया है, तुमने इतनी अच्छी और ऊंची उड़ान भरी कि ईश्वर भी तुम्हारी प्रसन्नता से जुड़ गया और उसने तुम्हें बड़े आराम से प्यार करने वाली धरती मां की बाहों में लौटा दिया।’ सच में रोमांचक उड़ान के बाद उस कविता को पढ़ना और उत्सव मनाना आज भी उस पहली यात्रा के अनुभव को जीता है।
Published on:
10 May 2023 10:13 pm
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