
-जयेश जोशी
मैं अरावली हमेशा अपने आप को सत्ता का सिंहासन मानती रही हूं। ऐसा कहा जाता है कि रायसीना हिल्स से ही मेरी शुरुआत हुई है। मैं क्यों चिंतित, विचलित और भयभीत हूं? उद्भव संस्कृतियों को समेटते हुए सदियों-सदियों साल का मेरा इतिहास रहा है। आंकड़ों में तो इसका आकलन होगा, परंतु संस्कृति में इसका आकलन करना मुश्किल होगा कि मेरा इतिहास कितना पुराना है। मेरा इतिहास लिखने वालों का इतिहास मिल सकता है, परंतु मेरा इतिहास मिलना शायद नामुमकिन हो। स्वयं को यह मानते हुए कि मैं जीवनदायिनी पोषण की संरक्षक और आनंद की वह धारा हूं, जिसके आसपास सभ्यताओं का भी विकास हुआ होगा।
इसके आसपास कई तरह के समाज, संस्कृति और सभ्यताएं पली, बड़ी और विकसित हुई होंगी तथा आज भी इठला रही होंगी, सुशोभित हो रही होंगी। आओ फिर चर्चा करें मुझ पर, मुझसे और मुझ तक। मेरी क्या ऊंचाइयां हैं या धरातल पर आ गई या मैं धरातल में समा गई, यह तो वक्त के झंझावातों ने किया होगा। मैं तो सदियों से खड़ी थी, जिसकी शुरुआत दिल्ली-हरियाणा से होकर गुजरात तक जाती है। हो सकता है वह दिल्ली तथा गुजरात बनने से पहले की हो। उससे भी पहले की हो। मैं केवल मात्र मिट्टी-पत्थर का ढेला नहीं, भंडार नहीं हूं। मैं तो अपने आप में संरक्षणकर्ताओं की कर्मभूमि रही हूं, जन्मभूमि रही हूं, पहचान रही हूं- जिसे अरावली नाम दिया गया। मैंने अरावली नाम कैसे दिया, वह तो अलग विषय है। नाम से देखा जाए तो मुझे शक्तिशाली माना जाता है। मैं अपने आप में ही कई पहाडिय़ों की शृंखला के रूप में परिभाषित हुई हूं और मेरा पुराणों में भी उल्लेख मिल सकता है। मैं कहां से शुरू हुई हूं- इसे इंगित कर पाना कागजों में या इनसे जुड़े हुए फैसलों में बहुत कठिन है। महत्वपूर्ण यह है कि अरावली का अपना भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और हमारी जीवन-शैली से कितना जुड़ाव और कितना महत्व है। क्योंकि मेरे बारे में चर्चा-चिंतन तो हर तरह के विशेषज्ञ अपने हिसाब से कर सकते हैं- चाहे वे भूगोलशास्त्री हों, अर्थशास्त्री हों, समाजशास्त्री हों, राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता हों। परंतु मैं यह मानती हूं कि आज मेरी पहचान, मेरे अस्तित्व, मेरी बनावट, मेरी शैली पर- इतना लंबा इतिहास होने के बावजूद - चर्चा की आवश्यकता क्यों हो गई? क्या अचानक मुझमें चमक दिख गई है या मैं चमक खोने की तैयारी में हूं? आओ इस पर जरा सोच लें। आओ जरा इस पर बात कर लें। मैं 'मैं' नहीं, मैं 'आप' हूं। आप ही की पहचान हूं। आप का ही उद्भव हूं। और मैं आप ही पर निर्भर हूं। हो सकता है कल मैं न रहूं तो आप भी न रहें। परंतु आपको मुझमें स्वयं को देखना होगा। समाज को मुझमें स्वयं को देखना होगा।
अरावली मात्र दिल्ली से लेकर गुजरात तक नहीं है। अरावली का प्रभाव तो सुदूर कई-कई क्षेत्रों तक हो सकता है- जिस प्रकार हिमालय को हिंदूकुश से थाईलैंड तक माना जाता है। हो सकता है मेरा भी इतिहास खंगालें, तो बड़ी गहराई में मेरा अस्तित्व मिले। इसे हमें सोचना होगा, चिंतन करना होगा, देखना होगा। जब सुनने में आया कि 'अरावली'- अरावली केवल मात्र पर्वत-पत्थरों का पर्वत या मिट्टी का पर्वत है तो सवाल उठे। किस रंग की मिट्टी? किस रंग के पत्थर? पत्थर के अंदर क्या? पहाड़ के अंदर क्या? मिट्टी के अंदर क्या? कौन-सा खजाना? किसका खजाना? किसके लिए कौन खोजेगा? किसका परिवार उजड़ेगा? किसका परिवार बचेगा? अरावली किसकी? अरावली का परिवार किसका? अरावली की संस्कृति किसकी? 100 मीटर से ऊपर और 100 मीटर से नीचे ऊंचाइयों के आधार पर अगर हम अरावली की चिंता को जोड़कर देखें, तो यह हमारे लिए बड़ा चिंतन है। पिछले दिनों जब इसकी चर्चा में आया कि अरावली को हम ऊंचाई से मानेंगे, तो कई प्रश्न हमारे मन में उठने लगे। क्योंकि हम तो यह मानते हुए आए थे कि अरावली परिवार है, अरावली कुटुंब है, अरावली संस्कृति है, अरावली की खेती, अरावली का खाना, अरावली की शक्ति, अरावली की पहचान है और हम अरावली के ही वंशज हैं।परंतु दुर्भाग्य से, जैसा आजादी के बाद से होता आया है- जो मेरा नहीं, वह या तो किसी का नहीं या सरकार की चिंता है- हमने उसी तरह अरावली को भी बिसराने का पूरा प्रयास किया। चाहे सामाजिक कार्यकर्ता हों, पर्यावरण की चिंता करने वाले लोग हों या वहां बसने वाले लोग जुडऩे के समय हमें बसने की चिंता होने लगती है, जो अरावली को लेकर हमें होने लगी है। परंतु यह प्रश्न हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इसको किसने बसाया था और यह कैसे बसी थी।
इतिहास खोजते हैं, तो दो-पांच-दस साल नहीं, सैकड़ों-हजारों साल पुरानी कई सभ्यताएं इसके भीतर से निकलकर आती हैं। कोई वैज्ञानिक आधार निकलकर आता है -यह हमारी सांस्कृतिक विरासत है। अगर हम इसे सामाजिक परिदृश्य से देखें, तो अरावली कई तरह के संस्कारों, कई तरह की परंपराओं, कई अभियानों और कई आंदोलनों की पहचान रही है- जो रायसीना से लेकर गुजरात तक अपनी शोभा बढ़ाती रही है। हम इसे भुलाकर कैसे मान सकते हैं कि अरावली सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता का प्रतीक नहीं है? अगर हम इसकी सांस्कृतिक विरासत को देखें, तो चाहे वह कहीं से कहीं भी चली हो- आदिवासी संस्कृति ने इसे बचाकर और संभालकर रखा है। संरक्षकों की यह अपनी पहचान रही है और वे इसकी पहचान के रक्षक भी रहे हैं। 'हम हैं रक्षक, हम हैं संरक्षक, हम हैं संवाहक'- अरावली के। यह मानते हुए कई आदिवासी जातियां- भील, गरासिया और अन्य आदिवासी समूह- इसे अपनी सांस्कृतिक स्थली मानती रही हैं। अगर हम इसके भौगोलिक पहलू को देखें - मैं कोई वैज्ञानिक या भूगोलशास्त्री नहीं हूं- पर यह तो हमें अच्छे से महसूस होता है कि बारिश के पानी को संभालकर रखने में अरावली का बड़ा योगदान है। दिल्ली को लू के थपेड़ों से बचाने में अरावली का बड़ा योगदान है। बादलों को रोककर बरसाने में अरावली का बड़ा योगदान है। मिट्टी को बहने से रोकने में अरावली का बड़ा योगदान है। कई नाले, कई नदियां, कई जंगल, कई पेड़, पहाड़, कई लुप्त होती वनस्पतियां और जैविक विविधता समेटे हुए पशु-पक्षी, ताल-तलैया - ये वादियां भौगोलिक विविधता का जीवंत उदाहरण हैं, जिन्होंने पश्चिमी भारत की सुंदरता और भौगोलिक सुदृढ़ता को बनाए रखा है। आर्थिक पहलुओं पर बात करना तो और भी कठिन है।
अनगिनत परिवार आज भी अरावली के संरक्षण, आनंद और वरदान की वजह से अपनी खाद्य-पोषण सुरक्षा बनाए रख पा रहे हैं। शायद मेरा यह लेख पर्याप्त नहीं है यह इंगित करने के लिए कि जिन्हें आज अरावली अच्छी लग रही है, उनके जीवन को बदलने में भी अरावली का बड़ा योगदान रहा है। अगर इसके आर्थिक पहलुओं को छोटे से छोटे परिवार के तौर पर देखें, तो यह पोषण और खाद्य सुरक्षा देती है। यहां की आबादी और शहरों में बसने वाली आबादी - दोनों के लिए - सारी ऋतुओं को संभालकर रखती है। इसमें राजस्थान या गुजरात ही नहीं, बल्कि पूरे पश्चिम भारत और पश्चिमी राजस्थान की आर्थिक रेखा बसती है - जो समृद्धि की वाहक है। परंतु इस पहचान के साथ हमें यह देखना होगा- इसकी चिंता कौन करेगा, किसको कौन संभाले? जब हम अरावली को परिवार मानते हैं, अरावली को कुटुंब मानते हैं, तो इस कुटुंब के सदस्य कौन हैं? क्यों पैरवी? किसके लिए पैरवी? अरावली खुद ही अपने आप में परोपकार है।
क्यों न हम यह मान लें कि हर गांव, हर परिवार, समाज का हर सदस्य अपने आप को अरावली कुटुंब का सदस्य माने- तो अरावली को बचाने की अलग चिंता नहीं होगी। अरावली स्वत: ही बचेगी। पहचान किसी की मोहताज नहीं होती- वह स्वयं बचेगी। आवश्यकता केवल यह है कि हम उस कुटुंब के घटकों, उस सांस्कृतिक विरासत और उन आर्थिक पहलुओं को संभाल लें। क्योंकि यह आदिवासियों के स्वराज की पहचान है। इस क्षेत्र के जीवन की संस्कृति की पहचान है। सामाजिक समरसता की पहचान है। यह प्रकृति है- यही पूजा है, यही विश्वास है। निश्चित तौर पर वैज्ञानिक साक्ष्य और वैधानिक तरीकों की आवश्यकता होगी। परंतु उससे पहले हमें इसके सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को समझना होगा, महसूस करना होगा और अपने तरीकों से इसे बचाना होगा।
Updated on:
22 Dec 2025 08:03 pm
Published on:
22 Dec 2025 05:06 pm
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