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न्याय के इंतजार में पथराती उम्मीदें

फर्जी प्रकरण में इसरो वैज्ञानिक नाम्बी नारायणन की लंबी कानूनी लड़ाई और अपने पक्ष में फैसला आने से कुछ घंटे पहले वैज्ञानिक चंद्रशेखर का दुनिया से रुखसत हो जाना त्वरित न्याय की दिशा में सार्थक कार्रवाई की जरूरत बताता है।

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जयपुर

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Sunil Sharma

Sep 26, 2018

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- अतुल कनक, लेखक

यह न्याय शास्त्र की सामान्य अवधारणा है कि किसी पीडि़त को देरी से दिया गया न्याय वस्तुत: उसे न्याय के अधिकार से वंचित करना ही है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में न्याय पाना कितना दुरूह हो गया है, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के ख्यातनाम वैज्ञानिक नाम्बी नारायणन के साथ हुई घटना से पता चलता है। वर्ष १९९४ में नाम्बी नारायणन पर पाकिस्तान के लिए जासूसी में मदद का आरोप लगाकर उन्हें केरल पुलिस ने गिरफ्तार किया था।

निश्चय ही यह एक सनसनीखेज घटना थी। लेकिन इस प्रकरण का इससे भी सनसनीखेज प्रसंग कुछ समय बाद सीबीआइ की जांच रिपोर्ट और उच्च न्यायालय के विवेचन में सामने आया जिनमें कहा गया कि नाम्बी नारायणन को एक साजिश के तहत झूठे पुलिस केस में फंसाया गया।

पिछले 24 सालों से नाम्बी नारायणन अपने खोए हुए सम्मान की लड़ाई लड़ रहे थे। पिछले दिनों देश की सर्वोच्च अदालत ने केरल सरकार को एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक के सम्मान से खिलवाड़ करने के प्रायश्चितस्वरूप उन्हें 50 लाख रुपए मुआवजे के तौर पर देने के निर्देश दिए। लेकिन इसी मामले में एक अन्य आरोपी इसरो वैज्ञानिक के. चंद्रशेखर, जो कि रूसी स्पेस एजेंसी ग्लेवकॉसमॉस के भारतीय प्रतिनिधि थे, अपने पक्ष में फैसला आने के कुछ घंटों पहले ही कोमा में चले गए और फिर दो दिन बाद इस दुनिया से कूच भी कर गए।

सवाल केवल यही नहीं है कि क्या किसी भी मुआवजे से उस मानसिक प्रताडऩा की भरपाई हो सकती है, जो एक व्यक्ति ने झूठे केस में फंसाए जाने के कारण भुगती। सवाल यह भी है कि न्याय की प्रतीक्षा करते-करते यदि आंखें ही पथरा जाएं तो फिर आम आदमी उस न्याय व्यवस्था की चौखट पर जाने का साहस कैसे कर सकेगा जो यह भी मानती है कि देरी से दिया गया न्याय वस्तुत: न्याय के अधिकार को नकारना है। भारत की अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या को लेकर मौजूदा मुख्य न्यायाधीश भी सार्वजनिक तौर पर चिंता जाहिर कर चुके हैं। दिसंबर २०१७ तक देश की सर्वोच्च अदालत में 54 हजार 719 मुकदमे लंबित थे और इनमें से 15 हजार 929 प्रकरण तो पांच साल से अधिक पुराने थे।

यह स्थिति बताती है कि आम आदमी को न्याय के लिए कितना इंतजार करना पड़ रहा है। यह उपयुक्त समय है जब लंबित मुकदमों के त्वरित निस्तारण की दिशा में भी सार्थक कार्रवाई हो।