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दूसरे देशों की तरफ मत देखिए, पहले अपने यहां सुधार के प्रयास कीजिए

अनिल प्रकाश जोशी पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित पर्यावरणविद जलवायु परिवर्तन को लेकर आज सबसे बड़ी चिंता पानी और वायु प्रदूषण से जुड़ी है। ये दोनों ही जीवन के आवश्यक तत्व हैं और इनके बिगडऩे का अर्थ है पृथ्वी पर जीवन के लिए एक नए संकट की शुरुआत। जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नया नहीं है। […]

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Air Pollution Linked to stroke

Air Pollution Linked to stroke

अनिल प्रकाश जोशी

पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित

पर्यावरणविद जलवायु परिवर्तन को लेकर आज सबसे बड़ी चिंता पानी और वायु प्रदूषण से जुड़ी है। ये दोनों ही जीवन के आवश्यक तत्व हैं और इनके बिगडऩे का अर्थ है पृथ्वी पर जीवन के लिए एक नए संकट की शुरुआत। जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नया नहीं है। पृथ्वी के 4.6 अरब वर्ष के इतिहास में ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिनके कारण जलवायु में बदलाव हुआ। तब इन घटनाओं में प्रमुख कारण ज्वालामुखी विस्फोट और बड़े उल्का पिंडों का पृथ्वी से टकराना रहा है। इनसे कई बार पृथ्वी पर बर्फ युग का आगमन हुआ, जिससे जीवन पर गहरा प्रतिकूल असर पड़ा। पहले जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक प्रक्रियाओं के कारण होता था, पर आज इसका प्रमुख कारण मानव गतिविधियां हैं। मतलब अब एक बार फिर अंत के इतिहास की शुरुआत हो चुकी। मानव द्वारा किए गए नुकसान ने पृथ्वी पर कई प्रजातियों को विलुप्त कर दिया है। आज बड़े जल स्रोत संकट में हंै। विशेषकर, ग्लेशियर, जो पृथ्वी के सबसे बड़े पानी के भंडार हैं, खतरे में हैं।

हाल ही केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट ने ध्यान दिलाया है कि दुनिया भर में ग्लेशियर क्षेत्र की, विशेषकर भारत के पांच राज्यों में, झीलों के आकार में वृद्धि देखी जा रही है। इस वृद्धि का मुख्य कारण ग्लेशियरों का पिघलना है, जिससे झीलें बन रही हैं। अध्ययन में यह पाया गया है कि 2011 से 2024 के बीच इन झीलों का क्षेत्रफल 40 प्रतिशत तक बढ़ गया है। भारत के लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्य, जहां अधिकतर हिमालयी क्षेत्र हैं, इन बदलावों से सबसे अधिक प्रभावित हैं। ये झीलें भविष्य में 'ग्लेशियर लेक आउटबस्र्ट फ्लड' जैसी आपदाओं का कारण बन सकती हैं। केदारनाथ त्रासदी और गत वर्ष सिक्किम की घटना इसी तरह के उदाहरण हैं, जहां ऊंचाई पर स्थित झीलों के फटने से बाढ़ ने तबाही मचाई थी। ये परिवर्तन सिर्फ भारत तक सीमित नहीं हैं। भूटान, नेपाल और चीन जैसे देश भी इस संकट से अछूते नहीं हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण और तापमान बढऩे से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे नदियों, झीलों और अन्य जल स्रोतों के लिए खतरा पैदा हो रहा है। 2011 में ग्लेशियर झीलों का क्षेत्रफल 5,33,000 हेक्टेयर था, जो 91,000 हेक्टेयर हो गया है। इससे हिमालय के जल स्रोतों से खतरे का अंदेशा दिखता है। जलवायु परिवर्तन के कारण जल वाष्पीकरण की मात्रा में भी वृद्धि हुई है, जिससे बाढ़ जैसी आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं। हिमालय, आर्कटिक और अंटार्कटिका में स्थित ग्लेशियर, जो कि पृथ्वी के 70 प्रतिशत पीने के पानी का स्रोत हैं, बाढ़ ही नहीं बल्कि भविष्य में जल संकट का कारण भी बन सकते हैं। इन हिमखंडों को प्रकृति ने 'फिक्स्ड डिपॉजिट' के रूप में रखा था, जो गर्मियों में नदियों को जल प्रदान करते हैं। इनसे खेती-बाड़ी, बागवानी और अन्य ऐसे कार्यों के लिए पानी मिलता है, जो जीवन के आधार हैं।

अब समय आ गया है कि देश इस स्थिति पर गंभीरता से चर्चा करे। यह विचार-विमर्श आवश्यक है कि भविष्य में पानी की उपलब्धता और उसका सही उपयोग कैसे हो, ताकि जल संकट से बचा जा सके। वायु प्रदूषण और जल संकट दोनों ही जीवन के लिए गंभीर खतरे बन चुके हैं। यदि इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया तो तो भविष्य में इसके दुष्परिणाम अत्यधिक गंभीर हो सकते हैं। कई रिपोर्ट हमारे बीच आ चुकी हैं जिनका आधार वैज्ञानिक विश्लेषण है। उनके अनुसार हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि अब वापसी के अवसर धुंधले पड़ चुके हैं। हमने अभी तक बिगड़ते हालात को गंभीरता से लिया ही नहीं है। अब देखिए दुनिया के देशों ने कॉप सम्मेलन कर चिंता जरूर जताई पर किया कुछ नहीं। खींचातानी के अलावा कुछ नहीं हो पाता। इसका सबसे बड़ा सच इसी तथ्य में छुपा है कि पिछले 2 दशकों में क्या दुनिया का पर्यावरण बेहतर हुआ? नहीं तो फिर सवाल तो खड़ा होना स्वाभाविक है। ऐसे सम्मेलन प्रकृति के बजाय धन पर ज्यादा केंद्रित होते दिखाई देते हंै। बात साफ है कि अगर प्रकृति के कहर से बचना है तो पहले अपने देश में ही ठोस निर्णय लें ओर विश्व के लिए उदाहरण बनें। कहा भी गया है कि चैरिटी पहले घर से ही शुरू होती है।