
वेदांत, भगवद्गीता और बौद्ध धर्म के चार परम सत्य
त्रिलोचन शास्त्री, प्रोफेसर, (आइआइएमबी व संस्थापक अध्यक्ष, एडीआर)
भगवान बुद्ध के बताए जीवन के चार परम सत्य - दुख, दुख का कारण, निवारण और निवारण का मार्ग - मानव जाति के व्यापक हित और संसार में समन्वय की स्थापना का सूत्र हैं।
पहले सत्य की व्याख्या उन्होंने इन छह शब्दों में की- 'सर्वम् क्षणिकम् क्षणिकम्, सर्वम् दु:खम् दु:खम्।' इसका आशय है कि सब कुछ क्षणिक है और सब दुख है। यह कथन आध्यात्मिक न हो कर अनुभव आधारित कहा जा सकता है। हर व्यक्ति यही देखता है कि उससे जुड़ी हुई चीजें निरंतर परिवर्तनशील हैं। भौतिक जगत और मानव मन निरंतर इस परिवर्तन का साक्षी बनता है। शरीर में प्रति क्षण बदलाव आता है। जीवन में सुख-दुख, आनंद-दर्द और सफलता-विफलता का आना-जाना लगा रहता है। यहां 'दु:खम्' से भगवान बुद्ध का आशय वह नहीं है, जिसे मनुष्य आम तौर पर दुख मानता आया है। इसका आशय है अनवरत चिंता जो मनुष्य को सदा घेरे रहती है, क्योंकि संसार में शांति या आनंद कुछ भी चिरस्थायी नहीं है। वेदों-उपनिषदों में भी यही बात कही गई है। आदि शंकराचार्य के चार प्रसिद्ध शब्द हैं- 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या।' अर्थात ब्रह्म ही यथार्थ और जगत मिथ्या है।
वास्तविकता यह है कि जगत का शाब्दिक अर्थ है- जो गतिशील हो या बदलता रहे। वेदों में यथार्थ की परिभाषा बहुत स्पष्ट है- जो बदलता रहता है, वह यथार्थ नहीं है, हालांकि यह दिखने में यथार्थ लग सकता है जैसे बादल। इसीलिए संतों ने कहा है चूंकि जगत स्थायी नहीं है, इसलिए यह यथार्थ नहीं है। मण्डूक उपनिषद में कहा गया है- 'परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मण:...' अर्थात विवेकशील व्यक्ति संसार में कर्मों से मिले परिणामों की परख कर सकता है। ऐसे विवेकी मानव को ज्ञान हो जाता है कि संसार में स्थायी सुख जैसा कुछ नहीं है।
बुद्ध ने दूसरे परम सत्य के बारे में कहा है- अगर दुख है तो उसका कारण भी होगा। यह है तृष्णा। क्षणिक वस्तु, क्षणिक सुख की तृष्णा। इससे कैसे स्थायी सुख मिलेगा? वेदों में भी कई बार इस विचार का उल्लेख मिलता है। मण्डूक उपनिषद के ही अनुसार, 'इष्टापूर्तं मन्यमाना: वरिष्ठं...' अर्थात जो लोग इच्छाएं पूरी करने को सर्वोपरि मानते हैं, वे दुर्गति को प्राप्त होते हैं। ईशा उपनिषद में कहा गया है- 'अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते' अर्थात् अंधकार का मार्ग वही चुनते हैं, जो अज्ञान के पथ पर चल पड़े हैं। वेदों में अज्ञान को ही तृष्णा का कारण बताया गया है और यही दुर्गति व अंधकार का प्राथमिक कारण है। भगवद्गीता में कहा गया है- 'आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा:।' अर्थात मनुष्य सैकड़ों कामनाओं के कारण तृष्णा व क्रोध के वशीभूत हो जाता है।
तीसरा परम सत्य वैज्ञानिक भी है। इसके अनुसार, अगर पीड़़ा का कारण है तो उस कारण का निवारण ही पीड़ा का निवारण है। आशय है- तृष्णा को त्यागना ही दुख या पीड़ा का अंत है। तृष्णा से मुक्ति पाने का उपाय अष्टांगिक मार्ग के नाम से जाना जाता है। कैवल्य उपनिषद में भी इस तीसरे सत्य जैसी ही बात कही गई है- 'त्यागेनैके अमृतत्वमानशु:' अर्थात तृष्णाओं का त्याग कर या संन्यास लेकर ही मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर सकता है। भगवद्गीता में कहा गया है -'एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरअपरिग्रह:' अर्थात अकेला, समर्पित भाव से, बिना किसी तृष्णा के, बिना किसी अधिकार के। भगवद्गीता और उपनिषदों में बार-बार त्याग के महत्त्व पर बल दिया गया है।
चौथा परम सत्य है दुख निवारण का मार्ग। यही अष्टांगिक मार्ग कहलाता है। इसके सिद्धांतों के अनुसार यह मस्तिष्क, उसकी स्थिरता पर नियंत्रण और तृष्णा का त्याग करने वाले मार्ग है। गीता और पतंजलि योग सूत्र में वर्णित अष्टांग योग के आठ चरण पूरी तरह से अष्टांगिक मार्ग के समान नहीं है, लेकिन दोनों मस्तिष्क को स्थिर व शांत करना ही बताते हैं।
Published on:
03 Jun 2021 08:37 am
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