
Dravidian Politics
द्रविड़ राजनीति के दो सर्वोच्च स्तंभों जे. जयललिता और एम. करुणानिधि के अवसान का अनिवार्य रूप से यह अर्थ नहीं है कि वहां कोई सियासी निर्वात जैसी परिस्थिति उभर रही हो। इनके निधन से अगर वाकई कुछ हुआ है तो यह, कि दोनों बड़े द्रविड़ राजनीतिक दलों के लिए लोकसभा चुनाव से पहले खेलने का मैदान अब चौसर हो गया है। इस मामले में शायद यह प्राकृतिक न्याय ही कहा जाएगा कि दोनों नेताओं के निधन का वक्त और परिस्थितियां ऐसी हैं कि अगले साल सहानुभूति के आधार पर वोटों की उम्मीद नहीं कर सकते, जैसा कि अतीत में एमजी रामचंद्रन या फिर उनकी सियासी उत्तराधिकारी जयललिता के निधन से ठीक पहले संभव हुआ था।
डीएमके के एमके स्टालिन को करुणानिधि के निधन से उपजी सहानुभूति की लहर चुनाव तक टिकाए रखने में दिक्कत होगी। हालांकि उन्हें दफनाने के लिए मुख्यमंत्री पलनिस्वामी द्वारा मरीना बीच पर जगह देने से इनकार करने के चलते जो विवाद पैदा हुआ, वह 2019 के चुनाव प्रचार का प्रमुख मुद्दा बन सकता है, भले ही बाद में मरीना बीच पर जगह दे दी गई हो। करुणानिधि के निधन से सत्तारूढ़ एआइएडीएमके को सख्त जरूरी राजनीतिक प्रासंगिकता अचानक हासिल हो गई है। पार्टी बीते कुछ माह में टूटे हुए धड़े अम्मा मक्कल मुन्नेत्र कषगम (एएमएमके) के हाथों कुछ काडर गंवा चुकी है। हाल के दिनों में एएमएमके में दूसरे नंबर के नेता टीटीवी दिनाकरन कथित मीडिया 'ब्लैकआउटÓ के बावजूद अपनी रैलियों में अच्छी-खासी भीड़ खींचते रहे हैं। यह पार्टी शशिकला नटराजन के जेल में रहते बनाई गई थी।
चुनाव से काफी पहले जयललिता और करुणानिधि के निधन ने तमिलनाडु के मतदाताओं को पर्याप्त समय दे दिया है कि वे उनके बाद की सियासी हकीकत से अपना मेल बैठाकर नए दौर की राजनीति के हिसाब से खुद को ढाल सकें। आजादी के बाद पहली बार है कि तमिलनाडु में किसी करिश्माई नेता का अभाव हुआ है और यह स्थिति आने वाले लंबे समय तक कायम रहेगी।
पलनिस्वामी को चुनाव के समय उनके प्रदर्शन के आधार पर ही तोला जाएगा। जरूरी नहीं है कि पिछले मुख्यमंत्रियों से उनकी तुलना हो बल्कि लोग प्रतिद्वंद्वी स्टालिन के बरक्स ही उन्हें परखेंगे। स्टालिन भी मजबूत जमीन पर खड़े हैं। उन्होंने 1996 से 2001 के बीच चेन्नई के मेयर और डीएमके के राज में 2006 से 2011 के बीच दो वर्ष के लिए उपमुख्यमंत्री का पद संभाला है। इन दोनों के अतिरिक्त एएमएमके के दिनाकरन के रूप में एक तीसरे खिलाड़ी की गुंजाइश भी बनती है।
पिछली बार द्रविड़ राजनीति के भीतर से कोई 'प्रतिद्वंद्वी ताकतÓ उभरी थी तो वे थे एमजीआर, जिन्होंने डीएमके से अलग होकर एआइएडीएमके या अन्नाद्रमुक बनाई थी। तब आपातकाल और अन्य आसन्न मुद्दों के चलते इंदिरा गांधी तमिल राजनीति पर उतना ध्यान नहीं दे पाईं और कामराज के निधन के बाद डीएमके के मतदाता अलगाव में पड़ते गए। एमजीआर की 'भ्रष्टाचार-मुक्तÓ और फिल्मी परदे से बनी कल्याणकारी छवि ने मतदाताओं को अपनी ओर खींचा। इसके बाद का सब इतिहास है।
टूट की अगली संभावना दो हिस्सों में उसी के आसपास बनी। एमजीआर के बाद अन्नाद्रमुक टूट गई लेकिन डीएमके के हाथों 1989 के असेंबली चुनावों में दोनों की हार ने उन्हें वापस मिला दिया। एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन केवल 27 दिन तक मुख्यमंत्री रह सकी थीं। द्रविड़ राजनीति में यह सबसे संक्षिप्त अध्याय है जो कहीं फुटनोट में दर्ज है। टूट की दूसरी संभावना 1993 में डीएमके में बनी जब वाइको उर्फ वी गोपालस्वामी ने एमडीएमके बना ली। आज यह पार्टी अपनी ही परछाई बनकर रह गई है। मतदाता इसको और इसके नेता को तकरीबन भुला चुके हैं।
1996 से 2006 के बीच एक दशक के दौरान करुणानिधि और जयललिता ने अपने-अपने मुख्यमंत्रित्व काल में पूरा जोर पारंपरिक व स्थानीय प्रतिद्वंद्वियों को भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार करवाने में लगाया। दोनों नेताओं ने बाकी की स्थिति ऐसी बना दी कि उनका सियासी वजूद ही संकट में पड़ गया। कोई भी इन दोनों के बीच अगर घुसने की कोशिश करता तो उसका सांस लेना मुश्किल कर दिया जाता। द्रविड़ राजनीति के नए खिलाड़ी अब उभरी नई परिस्थिति का जब मूल्यांकन करेंगे तो इतिहास का यह हिस्सा वे भूल नहीं पाएंगे। एएमएमके के संदर्भ में भी इसे याद रखा जाना होगा। दिनाकरन ने मूल द्रविड़ वैचारिक पहचान से मुक्त एक नई द्रविड़ राजनीतिक पहचान की रचना कर के संभवत: ऐसे अन्य तमिल तबकों में कुछ उम्मीद जगाई है जो जलीकट्टू के समर्थन में हुए प्रदर्शनों की रीढ़ रहे हैं।
आज मुमकिन है कि डीएमके, एआइएडीएमके और एएमएमके अखिल तमिल समाज की बात शब्दश: न करें, फिर भी इस समाज में ऐसे धड़े बेशक हैं जो बीजेपी/कांग्रेस जैसी किसी राष्ट्रीय पार्टी में भरोसा नहीं करते, न ही रजनी-कमल जैसे बाजार-केंद्रित फिल्मी सितारों पर उनका यकीन है। इसके कारण विचारधारात्मक अतीत के बजाय वर्तमान में निहित हैं। यह वोट मूल द्रविड़ राजनीति के पक्ष में उतना नहीं है, जितना कि बीजेपी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य के खिलाफ है।
एन सत्य मूर्ति
वरिष्ठ पत्रकार
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