सभी के सहयोग से सही समय पर सही शिक्षा देना ही समाधान
यदि हम आज के किशोर-किशोरियों को सही ज्ञान दे पाएंगे तो भविष्य में महिला हिंसा मुक्त समाज बनाने में सफल हो सकते हैं। यह समझना भी आवश्यक है कि इसे हमें सबके साथ मिलकर करना है, नारी व पुरुष एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बल्कि पूरक हैं। हमारा लक्ष्य सबके सहयोग से सही समय पर सही शिक्षा देना होना चाहिए।
डॉ. लीला जोशी पद्म अवार्डी, सेवानिवृत्त मुख्य चिकित्सा अधीक्षक इंडियन रेलवेज
पूरा विश्व 25 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस के रूप में मनाता है। महिला हिंसा या उत्पीडऩ पूरे समाज के लिए बड़ा कलंक है, जिसके उन्मूलन के लिए सरकारें व कई गैर सरकारी संगठन प्रयत्नशील हैं पर हिंसा या उत्पीडऩ की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे विश्व में हर तीसरी महिला अपने जीवनकाल के किसी न किसी एक खंड में उत्पीडऩ की शिकार रहती है, और यह स्थिति तब है जब अधिकतर पीडि़ता पुलिस के पास जाने से घबराती हैं और उत्पीडऩ के मामले को रिपोर्ट नहीं करतीं।
एक अनुमान के अनुसार, 10 में से केवल एक पीडि़ता ही रिपोर्ट लिखवाने पुलिस तक पहुंचती है। इस स्थिति के बारे में सबको जागरूक करने व निराकरण करने के उद्देश्य से करीब दो दशक से अधिक समय से संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहले 25 नवंबर एक दिन निश्चित किया गया और जल्दी ही इसे बढ़ा कर 10 दिसंबर तक (मानवाधिकार दिवस) यानी पूरे 16 दिन तक कर दिया। इन 16 दिनों में इसी उद्देश्य को लेकर कई प्रकार के आयोजन किए जाते हैं, ताकि पूरा समाज इस त्रासदी के बारे में समझे और इसके निराकरण में अपना योगदान करे। इस त्रासदी के निराकरण के लिए कई कदम, योजनाएं और जमीनी कार्य भी किए जा रहे हैं पर हालात सुधर नहीं रहे हैं, क्योंकि ये कदम अधिकतर उत्पीडि़त महिला को मदद पहुंचाने के लिए हैं, जैसे आर्थिक सहायता, कानूनी मदद, वन स्टॉप सेंटर आदि। समस्या का जड़ से अंत तभी संभव है, जब इन सब कदमों के साथ-साथ हमारी मानसिकता बदले। महिला उत्पीडऩ की जड़ में पितृसत्ता की गलत सोच है, अन्यथा प्रकृति ने नर-नारी में कोई भेदभाव नहीं किया है, जिसका प्रतीक हमारे शास्त्रों में वर्णित शिवजी के अर्धनारीश्वर रूप में किया गया है और इसी से प्रकृति का संतुलन है। पितृसत्ता की इस गलत मानसिकता ने वर्तमान में इस संतुलन को डगमगा दिया है और धीरे-धीरे इसने अपनी जड़ें बहुत गहरी कर ली हैं। अत: इसका निराकरण तभी संभव है जब हम समस्या को जड़ से समाप्त करें। इसी लक्ष्य को लेकर राष्ट्रीय स्त्री रोग विशेषज्ञों की संस्था (फोगसी) गत कुछ वर्षों से एक अभियान चला रही है, जिसका नाम है ‘धीरा’।
यह अभियान स्कूलों में किशोर बालकों व बालिकाओं के लिए है। इस उम्र में जब बच्चों का मानसिक विकास बहुत तेजी से होता है और जो कुछ वे सीखते, देखते या सुनते हैं वह उनके मन, मस्तिष्क में एक स्थायी प्रभाव डालता है। आगे जीवन में इसी से उनके व्यक्तित्व का निर्माण भी होता है, और वक्त आने पर यही उनके व्यवहार और प्रतिक्रिया का आधार भी बनता है। ‘धीरा’ की शिक्षा और प्रशिक्षण का आधार भी यही है। ‘धीरा’ का मतलब है हिम्मत। प्रशिक्षण के दौरान किशोरियों को बताया जाता है कि सामने वाले के पहले गलत कदम पर ही वे ना कहने और नकारने की हिम्मत करें। किशोरों को बताया जाता है कि किशोरियों के विरुद्ध गलत कदम की स्थिति में वे मूक दर्शक नहीं बने रहें बल्कि विरोध करें।
इस प्रकार यदि हम आज के किशोर-किशोरियों को सही ज्ञान दे पाएंगे तो भविष्य में महिला हिंसा मुक्त समाज बनाने में सफल हो सकते हैं। यह समझना भी आवश्यक है कि इसे हमें सबके साथ मिलकर करना है, नारी व पुरुष एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बल्कि पूरक हैं। हमारा लक्ष्य सबके सहयोग से सही समय पर सही शिक्षा देना होना चाहिए।
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