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आस्था से खिलवाड़

Gulab Kothari Artilcle: झारखण्ड सरकार ने सम्मेद शिखर को पर्यटन क्षेत्र घोषित करके धर्म-राष्ट्र का अपमान ही किया है। यह राजनीति और प्रशासन की चेतना-शून्यता का परिणाम ही है। क्या किसी अन्य धर्म के तीर्थस्थल के साथ कभी इस तरह का खिलवाड़ हुआ है, हो सकता है? नास्तिक भी ऐसे आदेश नहीं दे सकता... जैन तीर्थ श्री सम्मेद शिखरजी मुद्दे पर केंद्रित पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

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Jain pilgrimage Shree Sammed ShikharJi

Jain pilgrimage Shree Sammed ShikharJi

Gulab Kothari Artilcle: जीवन आस्था और विश्वास से चलता है। घर-व्यापार, समाज अथवा निजी स्तर का विश्वास ही आत्मविश्वास का आधार है। चेतना की जागरूकता का प्रमाण है, विकास के हर मील का पत्थर है। धर्म और विश्वास में चोली-दामन का सम्बन्ध है। हर धर्म के विश्वास के प्रतीक उनके 'तीर्थस्थल' हैं, जो धर्म के उद्गम देश में उपलब्ध (प्रतिष्ठित) हैं। चाहे वेटिकन सिटी हो, मक्का-मदीना हो, बद्रीनाथ-केदारनाथ या शबरीमला हो। ये तीर्थस्थल उस देश के राष्ट्रीय चरित्र का अंग होते हैं। चूंकि जैन धर्म का उद्गम भारत वर्ष है, अत: सम्मेद शिखर और शत्रुंजय (पालीताणा) इस देश की 2500 वर्ष पुरानी संस्कृति का प्रतिबिम्ब हैं, इतिहास हैं, खूंटा हैं।


हर तीर्थस्थल स्थानीय सरकारों की ओर से न केवल सुरक्षित है, बल्कि वहां के आयोजनों में सरकारों की भागीदारी भी रहती है। विशेष अवसरों पर यात्रियों के लिए आवागमन, ठहरना और खाने-पीने की व्यवस्था के निरीक्षण तक में पूर्ण भूमिका रहती है। धर्म के साथ देश-प्रदेश के सम्मान का प्रश्न भी जुड़ा रहता है।

सम्मेदशिखर उस दृष्टि से सरकारी राजनीति की शतरंज का शिकार हो गया। प्रभावशाली लोगों ने पहले ही इस क्षेत्र को अदालत तक पहुंचा दिया था। उन लोगों की पटना हाईकोर्ट के फैसले की भूमिका का ही परिणाम है कि आज जैन समुदाय दो धड़ों में बंट गया-दिगम्बर जैन और श्वेताम्बर जैन। इसी आधार पर सभी पुराने जैन तीर्थ भी दोनों समुदायों के मध्य पारियों (ओसरे) मे सिमट गए। आज तो व्यावहारिक दृष्टि से दोनों समुदाय स्वतंत्र रूप से जैन हैं।

जब राष्ट्रीय स्तर पर जैन समुदाय की मुख्यधारा में पहचान की चर्चा हुई, तब 'जीतो' नामक संगठन बना, जिसमें मूल भूमिका में श्वेताम्बर आचार्य नव पद्मसागर जी रहे। उधर, दिगम्बरों ने दिल्ली को प्रभावित करके जैन धर्म को अल्पसंख्यक घोषित करवा लिया। राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग हो गए। उल्लेखनीय बात यह है कि देश में दान/चन्दा देने वाले वर्ग में जैन सर्वोपरि रहे हैं।

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झारखण्ड सरकार ने सम्मेद शिखर को पर्यटन क्षेत्र घोषित करके धर्म-राष्ट्र का अपमान ही किया है। यह राजनीति और प्रशासन की चेतना-शून्यता का परिणाम ही है। क्या किसी अन्य धर्म के तीर्थस्थल के साथ कभी इस तरह का खिलवाड़ हुआ है, हो सकता है? नास्तिक भी ऐसे आदेश नहीं दे सकता। आज तो यह आदेश समाज के दोनों वर्गों को उद्वेलित किए हुए है। कैसे बेशर्मी के साथ सारे नेता-सभी दलों के-मौन हैं। मानो कुछ हुआ ही नहीं। क्या यह आदेश किसी हिटलरशाही से कम है? लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ है।

समुदाय कितना आहत है इसका प्रमाण यही है कि जयपुर में मंगलवार को जैन संत सुज्ञेय सागर जी ने आदेश के विरोध में अनशन करके प्राण न्यौछावर कर दिए। एक अन्य संत समर्थ सागर जी ने अन्न का त्याग कर रखा है। देशभर में जुलुस-प्रदर्शन के रूप में आक्रोश रैलियां निकल रही हैं। न झारखण्ड में, न दिल्ली में-किसी के कान में जंू रेंग रही। तब क्या वाराणसी-अयोध्या-उज्जैन के आगे सर्वधर्म समभाव का नारा भी मौन हो जाएगा। संविधान-प्रदत्त धर्म-स्वतंत्रता की, सम्मान की परिभाषा भी सरकारें तय करेंगी?

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यह तो सही है कि जैन धर्म अहिंसा का पुजारी है और रहेगा। यह भी सच है कि भारत की आजादी का आन्दोलन भी अहिंसा प्रधान ही था। अधिकारों के लिए संघर्ष में भी अहिंसा ही प्रबल रहेगी। अहिंसक रहकर भी कई ऐसे फैसले किए जा सकते हैं जो सरकार को असहज कर दे। पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा से सम्मेद शिखर में शराब-मांसाहार तथा अन्य गैर-कानूनी गतिविधियां शुरू हो गईं, जिससे समाज उग्र हो उठा।

अच्छा तो यह होगा कि केन्द्र सरकार अथवा सर्वोच्च न्यायालय स्वविवेक से आगे आए और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा आस्था के सम्मान की प्रतिष्ठा के लिए तुरन्त इस फैसले के निरस्तीकरण का निर्देश जारी करें। बच्चे को बचाने के लिए बकरी भी शेर से लड़ लेती है।

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