scriptशरीर में भी अग्नि-वायु-आदित्य | Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand 18 June 2022 | Patrika News
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शरीर में भी अग्नि-वायु-आदित्य

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: यदि शरीर में से गर्मी निकल जाती है तो ज्ञान और श्वास दोनों बन्द हो जाते हैं। यदि चेतना शक्ति नष्ट हो जाती है तो गर्मी और श्वास दोनों नष्ट हो जाते हैं। और यदि श्वास नष्ट हो जाता है तो ज्ञान और गर्मी दोनों ही नहीं रहते। ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में शरीर में विद्यमान तत्वों की व्याख्या समझने के लिए पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Jun 18, 2022 / 04:09 pm

Gulab Kothari

Sharir Hi Brahmand: शरीर में भी अग्नि-वायु-आदित्य

Sharir Hi Brahmand: शरीर में भी अग्नि-वायु-आदित्य

Gulab Kothari Article: मानव अवतरण की दृष्टि से सृष्टि के दो मूल पर्व हैं-लोक तथा लोकी। लोक आयतन है तथा लोकी उस आयतन में रहने वाला वस्तु तत्त्व है। विश्व की समस्त जड़ तथा चेतन दोनों ही सृष्टियों में ये दोनों पर्व विद्यमान रहते हैं। लोक शरीर का तथा लोकी उसमें विद्यमान आत्म तत्त्व का वाचक है। ब्रह्म विज्ञान में जड़ भाव बाह्य भौतिक शरीर तथा चेतन का भाव इन्द्रियों से युक्त प्राणी होता है। जिसमें आत्मज्योति भाव प्रसारित करने की क्षमता होती है। चान्द्र मन से संयुक्त इन्द्रप्राण ही इन्द्रियों की प्रतिष्ठा है। इसके कारण इन्द्रियां अपने कार्य-व्यापार को पूर्ण कर पाती हैं। जैसे चक्षु देखने में, श्रोत्र सुनने में, नासिका सूंघने में। मन के अभाव में ये इन्द्रियां अपना कार्य नहीं कर पाती। अत: इन्द्रियों सहित जीव को ‘समनस्क जीव’ तथा इन्द्रियों रहित जीव को ‘अमनस्क जीव’ अचेतन कहते हैं।

आत्मा, मन, बुद्धि और शरीर इन चारों की समन्वित अवस्था को मानव कहा जाता है। मानव के स्वरूप निर्माण में स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी पांचों पर्वों के तत्त्व आते हैं। भूपिण्ड, सूर्य और चन्द्रमा ये तीन प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। भूपिण्ड से मानव का शरीर, चन्द्रमा से मन तथा सूर्य के अंश से बुद्धि का निर्माण होता है।

मानव का आत्मा स्वयंभू और परमेष्ठी इन दो अव्यक्त पर्वों से आने के कारण अव्यक्त ही रहता है। मन-प्राण-वाक्, अव्यय-अक्षर-क्षर अथवा ज्ञान-क्रिया और अर्थ तीनों की समष्टि को आत्मा कहा जाता है। इनमें अर्थ को क्षर अथवा भूत सृष्टि कहा जाता है।

यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे के आधार पर विचार करें तो हमारे शरीर पिण्ड में भी 33 देवता, 99 असुर, 27 गन्धर्व, 84 पितर आदि की अवस्थिति अवश्य ही है। यद्यपि इन सबका हमें प्रत्यक्ष नहीं होता। फिर भी निरन्तर चलने वाले देवासुर संग्राम को तो प्रतिक्षण महसूस कर सकते हैं।

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इसमें देवों की अपेक्षा असुरों की विजय आसानी से हो जाती है। क्योंकि असुरी शक्तियां संख्या में तिगुनी हैं। असुर देवों की अपेक्षा बलवान भी होते हैं। ‘असुरा: देवानां बलिन:।’ भूपिण्ड से सूर्य तक अग्नि (8वसु), वायु (11 रुद्र) तथा आदित्य (12 आदित्य) आदि 33 देव रहते हैं।

हमारे शरीर में ब्रह्माण्ड की ही भांति तीनों शक्तियां काम कर रही हैं। शरीर में गर्मी हवा और चेतना प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। जो गर्मी है वही वैश्वानर अग्नि कही जाती है। हवा वायु नाम से प्रसिद्ध है। चेतना को इन्द्र कहा जाता है। हमारे शरीर में चूंकि ये तीन शक्तियां है अत: शरीर में तीन ही स्थान नियत हैं।

मस्तक में इन्द्र, छाती में वायु तथा पेट में अग्नि रहता है। मस्तक को शिरोगुहा, छाती को उरोगुहा, पेट को उदरगुहा कहते हैं। शरीर में मस्तक, छाती एवं अधोभाग तीन भाग निर्धारित हैं। संसार के सभी प्राणीमात्र में यही तीन भाग देखे जाते हैं।

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कीट में, चींटी में अथवा मनुष्य में, सभी प्राणियों में मस्तक भाग को इन्द्रपुर, मध्य को वायुपुर और अन्त को अग्निपुर कहते हैं। इन तीनों पुरों में तीनों अधिष्ठाता नियत रूप से स्थिर रहकर अपने-अपने पुर में शासन करते हैं। साथ ही ये सारे शरीर में भी व्याप्त रहते हैं।

विचार शक्ति का समस्त कार्य मस्तक से होता है। किन्तु इस विचार शक्ति के विज्ञान का सारे शरीर से सम्बन्ध रहता है। जहां भी कहीं वेदना होती है, बुद्धि को पता लग जाता है। इसी प्रकार अग्नि का अपना शासन यद्यपि जठर (उदर) ही है तथापि वह समस्त शरीर में अपना काम करता है।

यही स्थिति वायु की है। उरोगुहा उसका कार्य स्थल है। फिर भी यह वायु पूरे शरीर में व्याप्त रहता है। यदि कहीं भी वायु का व्यापार बन्द हो जाता है तो उसी समय वह स्थान शून्य हो जाता है। ये तीनों सम्पूर्ण शरीर में अपने-अपने स्थान में रहते हुए अपना काम करते हैं।

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ब्रह्माण्ड में सयंती, क्रन्दसी और रोदसी ये तीन त्रिलोकियां हैं। इनमें से हमारे शरीर का निर्माण रोदसी त्रिलोकी से होता है। पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्युलोक की सम्मिलित अवस्था रोदसी कही जाती है। इन तीनों के रस से शरीर का निर्माण होता है। द्युलोक के रस से मस्तिष्क शक्ति का निर्माण होता है।

अन्तरिक्ष से धड़ की वायु शक्ति का निर्माण होता है। पृथ्वी के आग्नेय प्राण से अर्थात् अग्नि की चिति से अस्थि-मज्जा इत्यादि अर्थों का निर्माण होता है। यद्यपि इन तीनों का काम निर्धारित है फिर भी इनमें से एक के भी नष्ट होने पर शेष दोनों का सर्वनाश हो जाता है।

यदि शरीर में से गर्मी निकल जाती है तो ज्ञान और श्वास दोनों बन्द हो जाते हैं। यदि चेतना शक्ति नष्ट हो जाती है तो गर्मी और श्वास दोनों नष्ट हो जाते हैं। और यदि श्वास नष्ट हो जाता है तो ज्ञान और गर्मी दोनों ही नहीं रहते।

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इन तीनों को एक सूत्र में बांधने वाला नियत तत्त्व आत्मा कहा जाता है। वही ब्रह्म है। एक ही ब्रह्म की अग्नि, वायु एवं इन्द्र ये तीन महिमा हैं। उसी ब्रह्म के आधार पर तीनों शक्तियां अपना कार्य करती हैं। इन शक्तियों का संचालन कोई और तत्त्व करता है।

इन्द्र, वायु और अन्तरिक्ष के रस के अलावा एक चान्द्र रस भी हमारे शरीर में आता है। वह मन कहा जाता है। यह मन जिसमें बंधा रहता है वही हमारा आत्मा है। चन्द्रमा में अप् और सोम दो तत्त्व हैं। अप् परमेष्ठी लोक से तथा सोम चन्द्रमा से सम्बन्धित है।

परमेष्ठी और चन्द्रमा दोनों सजातीय होने से अप् और सोम दोनों ही तत्त्व दोनों में रहते हैं। मात्रा भेद के कारण अप् को परमेष्ठी की तथा सोम को चन्द्रमा की वस्तु कहा जाता है।

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पृथ्वी-केन्द्र से निकलने वाला अग्नि घन, तरल और विरल रूप में क्रमश: वसु-रुद्र तथा आदित्य कहा जाता है। यह अग्नि रोदसी त्रिलोकी में व्याप्त है। ‘श्रद्धा वा आप:’ अर्थात् श्रद्धा आप: को (जल को) कहते हैं। यह श्रद्धा मूलत: परमेष्ठी में विद्यमान है। इसी को महान् भी कहते हैं। यही श्रद्धा तत्त्व सोम रूप में चन्द्रमा में आता है। सोम से मन का सम्बन्ध है। अर्थात् मन सोममय है।

शरीर की सप्त धातुओं में शुक्र ही संसार की उत्पत्ति का मूल बीज है। ‘तदेव शुकं्र तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते’ रूप में यही ब्रह्म है। यह शुक्र आपोमय है। ‘आपोमयं जगत्’ श्रुति के अनुसार संसार जलमय है। महानात्मा शुक्र में रहता है। जिस प्रकार महान् की प्रतिष्ठा शुक्र है उसी प्रकार मन की प्रतिष्ठा हृदय है। यह मन प्रज्ञानात्मा कहलाता है।

महानात्मा तो जन्मकाल में ही विकसित है। शुक्रमूर्ति महान् तो जन्म का ही कारण है। परन्तु प्रज्ञानात्मा का पूर्ण विकास जन्म के बाद सोलहवें वर्ष में होता है। चन्द्रमा की सोलह कलाओं के क्रमिक भाव से सम्बन्ध रखने वाला प्रज्ञान मन सोलह वर्ष में परिपक्व होता है। उसके बाद उसमें आत्म निर्भरता का उदय होता है।

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इसी के आधार पर ‘प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं-मित्रवदाचरेत्’ यह प्रसिद्ध है। यानी १६ वर्ष का हो जाने पर पुत्र से मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए। शुक्र आगे जाकर ओज में परिणत होता है। शुक्र में पार्थिव तत्त्व की प्रधानता है। और ओज में वायव्य तत्त्व की प्रधानता है।

विशकलन-प्रक्रिया (खण्डन) से वायव्य धातु ओज में से भी मलभाग निकल जाने पर शुद्ध दिव्य सोमरस रह जाता है। यही दिव्य सोमरस मन है। मन में सोम एवं सौर इन्द्रप्राण भेद से दो तत्त्व हैं। इस पर विज्ञान यानी बुद्धि प्रतिबिम्बित होने से यह चिदंश (आत्मांश) से युक्त हो जाता है। वह प्रतिबिम्ब स्नेहन युक्त सोम पर पड़ता है तब वह सोम ज्ञानमय बन जाता है।

मन का यह सोम भाग प्रज्ञा कहा जाता है। प्रज्ञा एवं प्राण की समष्टि ही प्रज्ञान मन है। जब तक अध्यात्म संस्था में प्रज्ञान ब्रह्म प्रतिष्ठित रहता है, तभी तक विज्ञान (बुद्धि) की स्थिति रहती है। मन की स्वस्थता पर ही बुद्धि का विकास होता है-‘स्वस्थे चित्ते बुद्धय: संस्फुरन्ति।’

यदि कुछ दिन तक अन्न नहीं खाएं, तो प्रज्ञान मन शिथिल हो जाता है। इससे बुद्धि शिथिल बन जाती है। भूखे मनुष्य की अक्ल जरा सी काम नहीं करती। ‘बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चित्।’ यह कहावत है कि-‘भूखे भजन न होय गोपाला।’

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