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शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं यज्ञ का परिणाम

locationनई दिल्लीPublished: Jun 11, 2022 08:55:13 am

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Gulab Kothari

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: दाम्पत्य की भारतीय अवधारणा पति-पत्नी के स्थूल सम्बन्धों की अपेक्षा न कर सूक्ष्म-सम्बन्धों में विश्वास करती है। ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में इसी अवधारणा को समझने के लिए पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं यज्ञ का परिणाम

शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं यज्ञ का परिणाम

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ के सिद्धान्त के आधार पर पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड दोनों ही सृष्टियों में दो तत्त्वों के परस्पर समायोजन से ही नवीन तत्त्व का निर्माण सम्भव है। सृष्टि क्रम में तीन यज्ञों की प्रधानता विद्यमान है-स्वायम्भुव यज्ञ (स्वयम्भू तथा परमेष्ठी के स्तर पर होने वाला), सम्वत्सर यज्ञ तथा आध्यात्मिक यज्ञ। स्वायम्भुव यज्ञ में दिव्य अग्नि तथा दिव्य सोम के संयोग से अपूर्व की उत्पत्ति मानी गई है। स्वयम्भू की अग्नि और परमेष्ठी के सोम से सूर्य रूप विराट् पुरुष का जन्म होता है। यहां अग्नि पुरुष रूप तथा सोम स्त्री रूप है। सूर्य इनकी संतति है, यही स्वायम्भुव यज्ञ कहलाता है। शतपथ ब्राह्मण में इस यज्ञ के संकेत हैं-
सोऽपोऽसृजत वाच एव लोकात् । वागेव साऽसृज्यत। (शत. ब्रा. 6.1.1.9)
अर्थात्- वह अप् रूप में परिणत हुआ। वाक् ही लोक है। वाक् ही सृष्टि बनी।

सम्वत्सर यज्ञ में वसन्तादि छ: ऋतुओं से पार्थिव प्रजा की उत्पत्ति, मानी गई है। इन षड्ऋतुओं में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ये तीन आग्नेय तथा शरद, हेमन्त व शिशिर-ये तीन सौम्य ऋतुएं मानी गई हैं। आध्यात्मिक यज्ञ को शरीरधारी प्राणियों की सृष्टि से जोड़ा जाता है। इस यज्ञ में अग्नि रूप पुरुष तथा सोम रूप स्त्री के परस्पर सम्बन्ध से प्रजोत्पत्ति होती है। यहां अग्नि व सोम को शोणित व शुक्र कहा जाता है।

इस प्रकार तीनों ही यज्ञों में अग्नि व सोम इन दो तत्त्वों की ही प्रधानता है। इस रूप में यह समस्त विश्व याज्ञिक क्रिया का ही प्रतिफल है। इन दोनों तत्त्वों की समान रूप से महत्ता है, जो सृष्टि के प्रत्येक स्तर पर विद्यमान है। एक के बिना दूसरे तत्त्व की पूर्णता नहीं है। वेद स्त्री व पुरुष की परस्पर निर्भरता को वर्णित करते हैं।

उनके पार्थक्य को नहीं। यह दाम्पत्य-भाव स्थूल शरीरधारी नर-नारी में ही नहीं है बल्कि सृष्टि के प्रत्येक स्तर पर है। दोनों में भेद सम्भव नहीं है। इनमें अभेद ही है, तब प्रधानता-गौणता, स्वतन्त्रता-परतन्त्रता जैसे विषयों के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता।

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स्त्री-पुरुष कोई स्वतन्त्र प्राणी नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि का अंग हैं। एक ही सिद्धान्त पर सृष्टि के साथ जीते हैं, कार्य करते हैं। किसी की कोई अलग से मर्जी कार्य नहीं कर सकती। जिन सिद्धान्तों पर स्वयम्भू और परमेष्ठी लोक तथा सूर्य और चन्द्रमा कार्य करते हैं, स्त्री-पुरुष भी इसी युगल व्यवस्था का अंग हैं।

एक अग्नि रूप, दूसरा सोम रूप। अग्नि में सोम की आहुति होती है। सोम जल जाए, अग्नि रह जाए। अग्नि-सोम से ही ऋतुएं बनती है। सौम्या स्त्री-पुरुष में आहूत होती है। पुरुष का सौम्य शुक्र आग्नेय शोणित में आहूत होता है।

स्त्री को पुरुष की अर्द्धांगिनी कहा गया है। एक ही सम्वत्सराकाश पुरुष और स्त्री दो भागों में बंटा हुआ है। इन दोनों से युक्त पूर्ण सम्वत्सर ही यज्ञ प्रजापति है। इनमें सूर्य से प्रकाशित आधा आकाश आग्नेय पुरुष रूप तथा चन्द्रमा से प्रकाशित आधा आकाश सौम्य स्त्री रूप माना गया है।
इस प्रकार पुरुष के शून्य आधे आकाश की पूर्ति के लिए स्त्री का अद्र्धाकाश आवश्यक माना गया है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर स्त्री को यज्ञकर्म में समान रूप से सहभागी बनाया जाता है। बिना इसके यज्ञ पूर्ण नहीं होता। तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी कहा गया है-
अयज्ञो वा एष: योऽपत्नीक:। 2/2/2/6
अर्थात्- जो बिना पत्नी के होता है, वह यज्ञ का अधिकारी नहीं है।
रामायण में भी राम को अपने अश्वमेध यज्ञ की पूर्णता के लिए सीता की स्वर्णप्रतिमा को प्रतिष्ठित करना पड़ा था। अन्यथा वह यज्ञ विफल माना जाता। इससे पूर्व सीता का त्याग कर दिया गया था।

आज स्त्री स्वतन्त्रता की मांग की जा रही है। वैदिक वाङ्मय में स्वतन्त्र शब्द का अभिप्राय वर्तमान युग में प्रचलित अर्थ से सर्वथा भिन्न है। यहां स्वतन्त्र शब्द का अर्थ है अपना तन्त्र। अमरकोश के अनुसार स्व शब्द के दो अर्थ हैं-बंधुजन तथा आत्मा। सभी प्राणधारियों का आत्मा स्व है।

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जब यह आत्मा किसी तन्त्र को आयतन बनाकर शब्द की उत्पत्ति या भाव की उत्पत्ति में समर्थ होता है, तब वह स्व कहलाता है। इसलिए आत्म तत्त्व युक्त स्त्री तथा पुरुष दोनों की ही स्वतन्त्रता तथा परतन्त्रता हो सकती है। पुरुष का अपना तन्त्र अग्नि है तथा स्त्री का सोम है।

अपने-अपने तन्त्रों में प्रतिष्ठित पुरुष और स्त्री स्व स्वरूपों में स्वतन्त्र है। इस दृष्टि से न पुरुष परतन्त्र है, ना ही स्त्री। यदि परतन्त्र हैं तो भी दोनों ही हैं। क्योंकि अद्र्धनारीश्वर रूप सृष्टि में प्रत्येक तत्त्व दो भागों में विभक्त है स्त्री तथा पुरुष। इस रूप में अग्नि-सोम, शुक्र-शोणित तथा स्त्री-पुरुष प्रत्येक में भी दोनों ही तत्त्व रहते, अत: इस दृष्टि से आग्नेय पुरुष का मध्य भाग सोममय तथा सौम्या स्त्री का मध्य भाग आग्नेय है।

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अग्नि और सोम की प्रधानता और गौणता के कारण पुरुष और स्त्री कभी स्वतन्त्र और कभी परतन्त्र माने जा सकते है। अपने-अपने धरातल पर प्रतिष्ठित रहते हुए ये सनातन विश्व के सनातन मित्र माने जाते हैं। अत: दोनों समान हैं, न कोई परतन्त्र न ही कोई स्वतन्त्र। दोनों ही प्रत्येक के आचार-व्यवहार को करने में सर्वथा समर्थ हैं क्योंकि दोनों में ही अग्नि व सोम हैं।

तीन लोक हैं-भू:, भुव:, स्व:। तीनों एक तन्त्र से जुड़े हैं। पृथ्वी कभी सीधी सूर्य से नहीं जुड़ती। अन्तरिक्ष के माध्यम से जुड़ती है। सीधी जुड़ी तो जल जाएगी। शनै:-शनै: पृथ्वी सूर्य के १२ आदित्य मण्डलों से गुजरती रहती है। इसके अनुरूप ही ऋतु-चक्र (वर्षा-शरद-ग्रीष्म) बनते हैं।

इसी प्रकार तीनों शरीर-कारण-सूक्ष्म-स्थूल भी एक समन्वय के साथ कार्य करते हैं। तीनों लोकों को प्रकृति-पुरुष (अव्यय, अक्षर, क्षर) एक तन्त्र रूप में चलाते हैं। प्रकृति (सत-रज-तम) रूप में आकृतियों-प्रकृतियों का संयोजन करती है। आत्मा अहंकृति रूप केन्द्रस्थ होता है। देखने में सब कुछ परतन्त्र दिखाई पड़ता है। सब एक-दूसरे पर आश्रित जान पड़ते हैं। तभी सृष्टि व्यवस्था चलती है।

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व्यवस्थित रूप में, निर्बाध चलती है। यथार्थ में यही स्वतन्त्रता है। तन्त्र से मुक्त रहना तो अपने केन्द्र से च्युत हो जाना है। अपने स्वरूप के बोध को ही मिटा देना है। आत्मा का नियन्त्रण जब बाहरी विश्व के हाथ में चला जाए, उनके साथ ही जब सुख-दु:ख का भाव जुड़ जाए अर्थात् सुख-दु:ख के लिए भीतर नहीं, बाहर के विषयों पर आश्रित हो जाएं, तब यही परतन्त्रता कहलाती है।

परतन्त्रता भौतिकवाद, उपभोक्तावाद, विकासवाद की एकमात्र उपलब्धि है। व्यक्ति का अस्तित्व गौण हो गया, पदार्थ प्रधान हो गया। धर्म, जो आत्मसुख का आधार था, लुप्त हो गया। धर्म ही तन्त्र का केन्द्रीभूत आधार है। स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा है। अव्यय पुरुष का मन, आत्मा ही इसका आधार होता है।

दाम्पत्य की भारतीय अवधारणा पति-पत्नी के स्थूल सम्बन्धों की अपेक्षा न कर सूक्ष्म-सम्बन्धों में विश्वास करती है। इस पवित्र सम्बन्ध को आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक त्रिविध धरातलों पर स्पष्ट करती है।
क्रमश:

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