25 दिसंबर 2025,

गुरुवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

पृथ्वी ही लक्ष्मी है

हमारे शरीर का निर्माण भी जल के द्वारा होता है। उन्हीं आठ स्तरों पर होता है-गर्भ में जिन आठ स्तरों में पृथ्वी का निर्माण होता है। अत: शरीर की भी पृथ्वी (मिट्टी-अचेतन) संज्ञा है। पंचमहाभूतों से निर्मित अन्तिम छोर की सृष्टि ही पृथ्वी है। प्रथम महाभूत आकाश है। नाद ही इसकी तन्मात्रा है। अत: सम्पूर्ण भूत सृष्टि शब्द-नाद-से उत्पन्न होती है। सरस्वती ही प्राणरूप नाद है। नाद को ही स्थूल रूप में शब्द ब्रह्म कहते हैं।

5 min read
Google source verification
पृथ्वी ही लक्ष्मी है

पृथ्वी ही लक्ष्मी है

गुलाब कोठारी, (प्रधान संपादक, पत्रिका समूह)

विष्णु पुराण में कहा गया है कि भृगु के द्वारा ख्याति ने धाता-विधाता दो पुत्रों तथा लक्ष्मी को जन्म दिया, जो विष्णु की पत्नी हुई।
'देवौ धातृविधातारौ भृगो: ख्यातिरसूयत।

श्रियं च देवदेवस्य पत्नी नारायणस्य या॥' (वि.पु. 1.8.15)
यहां आगे लिखा है कि विष्णु अर्थ (पदार्थ) है, लक्ष्मी वाणी है। विष्णु नियम, लक्ष्मी नीति है। विष्णु बोध है, लक्ष्मी बुद्धि है। विष्णु सृष्टा है, लक्ष्मी सृष्टि है। एक काम, एक इच्छा। देव, तिर्यक् मनुष्य आदि में पुरुषवाची विष्णु है और स्त्रीवाची लक्ष्मी है। इनके परे और कोई नहीं है।

आगे नवें अध्याय में विष्णु देवताओं से कहते हैं कि-'मैं तुम्हारे तेज को फिर बढ़ाऊंगा। मैं जो कहता हूं, करो। तुम दैत्यों के साथ सम्पूर्ण औषधियां लाकर अमृत के लिए क्षीर-सागर में डालो। मन्दराचल पर्वत को मथनी, वासुकि नाग को नेती (रस्सी) बनाकर, दोनों मिलकर, मेरी सहायता से मथकर अमृत निकालो। तुम सामनीति का आलम्बन कर दैत्यों से कहो कि इस काम में सहायता करने से इसके फल में समान भाग पाएंगे। अमृतपान करके तुम सबल और अमर हो जाओगे। मैं ऐसी युक्ति करूंगा कि दैत्यों को अमृत न मिल सकेगा। उन्हें केवल समुद्र मन्थन का क्लेश मिलेगा।' (77-81)

विष्णु कूर्मरूप धारण कर घूमते हुए मन्दराचल का आधार बने। अपने एक अन्य रूप से देवताओं में तथा एक और रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने लगे। विष्णु ने ऊपर से पर्वत को दबा रखा था। अपने तेज से वासुकि में बल का संचार करते थे, देवताओं का बल भी बढ़ा रहे थे। इसी मन्थन से कामधेनु, वारुणि देवी, कल्पवृक्ष, अप्सराएं, चन्द्रमा, विष, धन्वन्तरि (अमृत कलश सहित) तथा लक्ष्मी (कमल पुष्पों के साथ) प्रकट हुए। देखते-देखते लक्ष्मी विष्णु के वक्ष:स्थल में विराजमान हो गई। (89-105)

लक्ष्मी से परित्यक्त होने के कारण दैत्य व्याकुल हो गए। धन्वन्तरि के हाथों से अमृत कलश छीन लिया। विष्णु ने चक्र से राहू का सिर काट दिया। इन्द्र को स्वर्ग का राज्य प्राप्त हो गया। इन्द्र ने लक्ष्मी की अनन्यभाव से स्तुति की। विष्णु के वक्ष:स्थल में विराजमान, कमलोद्भवा लक्ष्मी देवी को नमस्कार करता हूं। कमल ही जिनके कर-कमलों में सुशोभित है, नेत्र कमल-दल के समान हैं, कमलमुखी, कमलनाभ-प्रिया, कमला देवी को प्रणाम करता हूं। तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो, सन्ध्या-रात्रि-प्रभा हो, विभूति, मेधा, श्रद्धा, सरस्वती हो। (119)

महाविद्या, आत्मविद्या हो। हमारे कोश, गोष्ठ (गौशाला), गृह, भोग सामग्री, शरीर और स्त्री आदि को आप कभी न त्यागें। जिन मनुष्यों को तुम छोड़ देती हो, उन्हें सत्व, सत्य, शौच, शीलादि गुण भी छोड़ देते हैं। मुझ पर प्रसन्न हों, मुझे कभी न छोड़ो। आप इस त्रिलोकी का कभी त्याग न करें।

लक्ष्मी पहले भृगु पुत्री के रूप में (ख्याति से) उत्पन्न हुई थी, फिर समुद्र-मन्थन के समय देव-दानवों के प्रयत्नों से समुद्र से उत्पन्न हुई। (141) विष्णु जब-जब अवतार धारण करते हैं, लक्ष्मी उनके साथ रहती है।

विष्णु की दो पत्नियां कही गईं हैं। श्री और लक्ष्मी-'श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ, अहोरात्रे पाश्र्वे, नक्षत्राणि रूपं, अश्विनौ व्यात्तम्। इष्णन्निषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण' (यजु: 31/22) ये श्री और लक्ष्मी ही शब्द सृष्टि एवं अर्थ सृष्टि की अधिष्ठात्री हैं।

पंचपर्वा विश्व में परमेष्ठी लोक को ही आपोमय सरस्वान समुद्र कहते हैं। इसमें स्नेहागुण वाला भृगु तथा तेज गुण वाला अंगिरा तत्त्व रहते हैं। भृगु धारा को आम्भृणी वाक् तथा अंगिरा धारा को सरस्वती वाक् कहते हैं। आम्भृणी का क्षेत्र लक्ष्मी का है, जो सम्पूर्ण पदार्थों की जनक है। सरस्वती वाक् से शब्द सृष्टि होती है। दोनों तत्त्व साथ ही उत्पन्न होते हैं और साथ ही रहते हैं। इन्हीं को शब्द ब्रह्म-अर्थ ब्रह्म के नाम से भी जानते हैं। जो शब्द ब्रह्म को जान लेता है, वह पर ब्रह्म को जान लेता है। लक्ष्मी और सरस्वती पृथ्वी और सूर्य से सम्बन्ध रखते हैं। पृथ्वी अर्थ प्रधान तथा सूर्य शब्द प्रधान है। विज्ञान दृष्टि से प्रकाश तरंगें ही ध्वनि में परिवर्तित होती जाती हैं। पृथ्वी पद्म है, कमला का आवास है। सूर्य देवताओं का आवास है। सरस्वती प्रथमा है, लक्ष्मी द्वितीया है। शब्द तन्मात्रा ही अर्थ की जननी है। सरस्वती के आधार पर लक्ष्मी और सूर्य के आधार पर पृथ्वी प्रतिष्ठित है। दोनों का मूल भृगु-अंगिरा तत्त्व ही है। सरस्वती ही श्री है जिसके बिना लक्ष्मी की प्रतिष्ठा संभव नहीं है। भौतिक सम्पत्ति को लक्ष्मी कहा जाता है। इसका आधार ऐश्वर्य युक्त, रसवती-सरस्वती है जो श्री कहलाती है। हम भूतबल से भौतिक लक्ष्मी का संचय कर सकते हैं, किन्तु बिना प्राण प्रतिष्ठा के 'श्रीÓ प्राण तत्त्व का संग्रह नहीं कर सकते। श्री-विहीन लक्ष्मी समय के साथ नष्ट हो जाती है।

सरस्वती आग्नेयी है, लक्ष्मी सौम्या है। सरस्वती का बसन्त में, शारदा पूजन का तथा लक्ष्मी का वर्षान्त में, लक्ष्मी पूजन का विधान है। दोनों का समन्वित रूप ही विश्व है। लक्ष्मी पदार्थ रूप है। सोम ही अग्नि में आहूत होकर पदार्थ बनता है। भृगु सोम है। सृष्टि के आरम्भ में न तो भृगु है, न ही अंगिरा। बस, ऋत अग्नि है और ऋतसोम है अर्थात् सृष्टि का कोई स्वरूप ही नहीं है। ऋताग्नि ब्रह्म है-ऋक्, यजु:, साम-है। यही शुक्र रूप योनि है, जिसमें विष्णु रूप सोम, रेत रूप में आहूत होता है। यहां जो प्रथम सत्य उत्पन्न होता है वह ब्रह्मा है, वही अव्यय पुरुष भी कहा जाता है। इसकी सृष्टि साक्षी कलाएं ही मन-प्राण-वाक् हैं। यही वाक् आगे चलकर परमेष्ठी लोक में नया रूप लेती है-शब्द वाक् तथा अर्थ वाक्। अन्तर यह हो जाता है कि जहां अव्यय वाक् शुद्ध रूप है, वहां वह कर्ता नहीं है।

परमेष्ठी के भृगु-अंगिरा वाक् में दोनों तत्त्व आपस में मिले हुए हैं। भृगु में अंगिरा भी है और अंगिरा में भृगु भी। यही कारण है कि परमेष्ठी लोक से युगल सृष्टि (सोम-अग्नि युक्त) संभव होती है। सत्य रूप सृष्टि ही क्षर रूप में पहुंचकर लक्ष्मी रूप पदार्थ का स्वरूप कहलाती है। यही मूल लक्ष्मी का अवतार है। कमल के भीतर रहने वाली सरस्वती है, कमल पर बैठी हुई लक्ष्मी है। पृथ्वी ही पद्म है।

हमारे चारों ओर जो आकाश है, जल समुद्र है, क्षीर-सागर कहलाता है। यही विष्णु का स्वरूप है। सम्पूर्ण विश्व इसी से, जल से, उत्पन्न होता है। अत: सृष्टा कहलाता है विष्णु। जो सृष्टि होती है, पदार्थ रूप है-लक्ष्मी है, जड़ है। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी बनती है। वायु द्वारा प्रेरित होकर जल से बुद्बुद्-फेन-मृदा-सिकता-शर्करा-पत्थर-लोहा-स्वर्ण आदि पार्थिव सृष्टि का निर्माण होता है। यही लक्ष्मी कहलाती है। विष्णु द्वारा उत्पन्न होती है। पंचपर्वा अथवा सप्तलोकात्मक विश्व में चूंकि अन्तिम-स्थूल-निर्माण पृथ्वी का है, अत: यह विष्णुपाद के नाम से जानी जाती है- 'इयं वै (पृथ्वी) वाक्' (शतपथ ब्रा.)

हमारे शरीर का निर्माण भी जल के द्वारा होता है। उन्हीं आठ स्तरों पर होता है-गर्भ में जिन आठ स्तरों में पृथ्वी का निर्माण होता है। अत: शरीर की भी पृथ्वी (मिट्टी-अचेतन) संज्ञा है। पंचमहाभूतों से निर्मित अन्तिम छोर की सृष्टि ही पृथ्वी है। प्रथम महाभूत आकाश है। नाद ही इसकी तन्मात्रा है। अत: सम्पूर्ण भूत सृष्टि शब्द-नाद-से उत्पन्न होती है। सरस्वती ही प्राणरूप नाद है। नाद को ही स्थूल रूप में शब्द ब्रह्म कहते हैं।

ब्रह्म के चार पाद कहे गए हैं। अत: शब्द और अर्थ वाक् के भी चार-चार ही रूप हैं।
'चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुब्र्राह्मणा ये मनीषिण:।
गुहा त्रीणि निहिता नेंगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥'
(ऋ. 1.164.45)

जैसे अर्थवाक् के तीन पद अव्यय-अक्षर-क्षर गुहा में रहते हैं। वैसे ही शब्द वाक् के परा-पश्यन्ति-मध्यमा गुहा में रहते हैं। इनमें क्रमश: पदार्थ और शब्द ही स्थूल रूप में हैं। शब्द से ही हमें मंत्र रूप भी प्राप्त होते हैं। यज्ञ-उपासना-प्रार्थना तथा लोक व्यवहार में शब्दों के उपयोग से ही अर्थ सृष्टि का विकास होता है। चेतना अमृत तत्त्व है, जड़ मृत्यु है। लक्ष्मी की सार्थकता चेतना से जुड़े रहने में है। ऊलूक वाहिनी लक्ष्मी का साम्राज्य अंधकार ही है। अत: यह तम प्रधान जीवन की प्रधानता देती है। तम से दूर होने में सरस्वती सहायक है।

- -वायु द्वारा प्रेरित होकर जल से बुद्बुद्-फेन-मृदा-सिकता-शर्करा-पत्थर-लोहा-स्वर्ण आदि पार्थिव सृष्टि का निर्माण होता है। यही लक्ष्मी कहलाती है। विष्णु द्वारा उत्पन्न होती है।