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बच्चों से सकारात्मक व्यवहार बदलेगा समाज

पढऩे में तेज-तर्रार शानदार कैरियर अपनाने जा रहे और दिखने में सभ्य युवकों का यह एक नया चेहरा है जो बेखौफ अपराध को अंजाम दे रहा है।

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Sunil Sharma

Dec 18, 2017

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- डॉ. ऋृतु सारस्वत, समाजशास्त्री

कुछ दिन पूर्व की घटना है कि नोएडा में एक किशोर ने अपनी मां और बहन की जघन्य हत्या कर दी। देश में यह अपने किस्म की पहली घटना नहीं है। लगभग रोजाना ही हमें ऐसी घटनाओं की जानकारी मिलती रहती है। अपने ही दोस्त को अगवा करके फिरौती के लिए उसकी हत्या कर देना या विदेश जाने की ख्वाहिश के लिए इंजीनियरिंग के छात्रों द्वारा मासूम बच्ची का अपहरण कर लेना ऐसी ही अनेक घटनाएं हैं जो समाज के लिए खतरे का संकेत हैं।

पढऩे में तेज-तर्रार शानदार कैरियर अपनाने जा रहे और दिखने में सभ्य युवकों का यह एक नया चेहरा है जो बेखौफ अपराध को अंजाम दे रहा है। हत्या, चोरी, अपहरण या दुष्कर्म में संलग्न इन युवाओं ने समाज के ताने-बाने को झकझोर दिया है। ये आक्रमक हैं और सब कुछ तुरन्त पाने की लालसा में लिप्त हैं, फिर चाहे वह अपार सम्पदा हो या एकतरफा प्रेम। चाही गई वस्तु न मिलने की स्थिति में हिंसक हो जाने से भी ये परहेज नहीं करते।

ये युवा अपराधी न तो आर्थिक दृष्टि से बेहाल है और न ही मानसिक बीमारी का शिकार हैं, फिर भी ये पेशेवर अपराधियों से कहीं ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इन पर न तो कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वालों का ध्यान जाता है और न ही समाज का। ऐसा संभव नहीं कि कोई युवा अचानक आक्रामक बन जाए। किसी का व्यक्तित्व सकारात्मक और नकारात्मक एक लंबी सतत् प्रक्रिया का परिणाम होता है और इसके बीज बाल्यपन में ही पड़ते है।

दौड़ती-भागती जिंदगी और पैसे की आंकठ इच्छा में अधिकतर अभिभावक दिन-रात की सीमाओं से परे काम में जुटे हुए हंै। उनके बच्चे इसी वजह से लंबी अवधि के लिए घर पर अकेले होते हैं और इस दौरान अगर कोई साथी बनता है तो प्ले-स्टेशन और कम्प्यूटर गेम्स। वैज्ञानिक मार्शल मेकनुहन ने अपने शोध से यह सिद्ध कर दिया है कि दृश्य-श्रव्य माध्यम दिमागों में आतंक फैलाने के लिए उकसाते हैं। इन खेलों का हिंसात्मक द्वंद्व बच्चों के मन में खीझ, गुस्सा और मारपीट भर देता है, परिणामस्वरूप युवा होते बच्चे अपनी संवेदना खोने लगते है।

यह संवेदनहीनता कोमल भावनाओं और सकारात्मक ज्ञान को कुंद कर देती है। इन सबसे इतर इन युवाओं को संवेदनहीन बनाने में शिक्षा पद्धति भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। बीते दशकों में शैक्षिक परिसरों में ‘नैतिक मूल्यों’ की आधारभूमि को उखाड़ फेंका गया है। इस पर सितम यह भी है कि बच्चों को हर स्तर की व्यावहारिकता का पाठ भी पढ़ाया जा रहा है। इन हालात में ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसके लिए ‘स्वयं’ से बढक़र कुछ भी नहीं है।

एक सभ्य समाज को बनाने के लिए उसके नागरिकों में दया, करुणा, ईमानदारी, उदारता और सहयोग की भावना जैसे गुणों का निरंतर विकास होना आवश्यक है। इसके विपरीत ईष्र्या, लालच, और द्वेष जैसे अवगुण समाज को तोड़ते हैं और मानवीय रिश्तों को असंभव बना देते हैं। बच्चों में पनपती आक्रामक भावनाओं और व्यवहारों को आरम्भ से ही रोके जाने पर समाज में फैलता अपराधों का यह सिलसिला थम सकता है। और, यह केवल तब ही संभव है जब जीवन की आरम्भिक अवस्था से ही बच्चों के साथ सकारात्मक और मृदु व्यवहार किया जाए।