20 दिसंबर 2025,

शनिवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

यह मतदान इजरायल के विरुद्ध बिल्कुल भी नहीं

भारत अचानक इजरायल के समर्थन में मतदान करता तो इसके नकारात्मक परिणाम होते।

2 min read
Google source verification

image

Sunil Sharma

Dec 23, 2017

india israel relation

inda israel relation

- प्रो. राकेश सिन्हा

भारत अचानक इजरायल के समर्थन में मतदान करता तो इसके नकारात्मक परिणाम होते। इससे पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे पर तमाम इस्लामिक देशों को भारत के विरुद्ध एकजुट करने का प्रयास करता।

भारत और इजरायल के बीच में भावनात्मक और ऐतिहासिक संबंध रहे है। इन्हें संयुक्त राष्ट्र में यरुशलम के संबंध में भारत के मतदान के आईने में नहीं देखा जा सकता। भारत ने यरुशलम को इजराइल की राजधानी मान्यता के संदर्भ में अमरीकी फैसले के विरोध में मतदान किया यानी उसने एक बार फिर फलस्तीन का ही पक्ष लिया। यह भारत की राजनीतिक विरासत का परिणाम है जो पूरे मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम संदर्भ में देखता रहा है। और, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अरब देशों के साथ अपने संबंध के आधार पर फैसला करता रहा है।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भावना के आधार पर फैसला नहीं हो सकता है। सभी राष्ट्रों को अपना तात्कालिक व दीर्घकालिक हितों को देखकर फैसला लेना पड़ता है। भारत अचानक इजरायल के समर्थन में मतदान करता तो इसके नकारात्मक परिणाम होते। इससे पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे पर तमाम इस्लामिक देशो को भारत के विरुद्ध एकजुट करने का प्रयास करता। साथ ही भारत की आंतरिक राजनीति में भाजपा विरोधी छद्म धर्मनिर्पेक्षवादी राजनीतिक दल इसे विदेश नीति पर हिंदुत्व की छाप दिखाकर देश में सामाजिक व राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ाने का काम करते।

इस मतदान को इजरायल के विरोध में मानना गलत होगा। भारत और इजरायल का संबंध हिंदू और यहूदी संबंध के रूप में देखा जाना चाहिए। जब दुनियाभर में यहूदियों पर अत्याचार हुआ भारत में उन्हें सम्मानित और सुरक्षित स्थान मिला। वर्ष 1928 की जनगणना में भारत में 24 हजार यहूदी थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक नाना हरिपालकर ने तो मराठी में एक पुस्तक इजरायल लिखी जो वहां बेहद लोकप्रिय हुई। इसके उपकार में वहां एक चौक का नाम पालकर चौक रखा गया। इजरायल के साथ भारत का संबंध स्वार्थ का संबंध नहीं भावनात्मक है।

यहूदी और हिंदू दोनों ही धर्म परिवर्तन को अस्वीकार करते हैं। भारतीय जनसंघ ऐसी अकेली पार्टी रही है जो इजरायल से संबंधों की वकालत करती रही। इसी पार्टी से निकले अटल बिहारी वाजपेयी 1977 की जनता पार्टी सरकार में जब विदेश मंत्री बने तो पहली बार इजरालय गए थे। यद्यपि कांग्रेस सरकार के दौरान भी इजरायल से संबंध सुदृढ़ हुए लेकिन अपराध बोध के साथ।

अब एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी ने इजरायल के साथ संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की कोशिश की है। संयुक्त राष्ट्र में भारत का मतदान एक कूटनीतिक फैसला है जिसे इजरायल बखूबी समझता है। उसने अपनी कोई नाराजगी न पहले जाहिर की और न अब की है। इसका कारण यहूदियों की हिंदुओं के प्रति कृतज्ञता रही है। उम्मीद है कि दोनों देशों के भावनात्मक संबंध जल्दी ही विदेश नीति में भी परिलक्षित होंगे।