
- प्रो आनंदप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश'
भारतीय ज्ञान परंपरा मानवता, करुणा, सहअस्तित्व और न्याय के उन सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित है, जिनकी जड़ें वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, महाकाव्यों तथा भारतीय दर्शनों में गहराई तक विस्तारित हैं। यह परंपरा मनुष्य को केवल एक सामाजिक प्राणी नहीं, बल्कि ‘ऋत’ और ‘धर्म’ के व्यापक नैतिक बोध से संचालित एक चेतन अस्तित्व मानती है। इसी दृष्टि से भारतीय चिंतन में मानवाधिकारों की अवधारणा किसी बाहरी या आधुनिक विचार की देन नहीं, बल्कि मनुष्य की गरिमा, स्वतंत्रता, समता और कर्तव्यबोध से उपजी स्वाभाविक जीवनशैली है। अहिंसा, सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम् तथा लोकसंग्रह जैसे आदर्श भारतीय ज्ञान परंपरा के केंद्र में रहे हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा और सामूहिक कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं। इस प्रकार मानवाधिकारों की अवधारणा भारतीय चिंतन में प्राचीन काल से ही अंतर्निहित रही है, जिसने न केवल भारत की सभ्यता को दिशा दी, बल्कि वैश्विक मानवाधिकार दृष्टिकोण को भी प्रेरित किया है। यद्यपि ‘ह्यूमन राइट्स’ शब्द अंग्रेजी जगत की देन है, परंतु मानव का स्वाभाविक, जन्मसिद्ध, सार्वभौमिक अधिकार- यही विचार भारतीय ज्ञान-परंपरा में सहस्त्राब्दियों पूर्व स्थापित हो चुका था। ऋग्वैदिक ऋषियों से लेकर उपनिषद्, गीता, धर्मशास्त्र, बौद्ध-जैन परंपरा, भक्ति-आंदोलन, और आधुनिक भारतीय चिंतन तक- मानव की गरिमा, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और करुणा को परम मूल्य के रूप में प्रतिपादित किया गया। भारतीय ज्ञान-परंपरा केवल आध्यात्मिक या मोक्ष-केंद्रित नहीं, बल्कि गहरे रूप से मानवीय अधिकारों, सामाजिक न्याय और सार्वभौमिक कल्याण पर आधारित है।
भारत में अधिकार (राइट) को धर्म (राइटियस ड्यूटी) के साथ जोड़ा गया। धर्म का अर्थ ‘नैतिक व्यवस्था का वह सिद्धांत’ है, जो सर्वभूत हित की साधना करता है। मनुस्मृति में धर्म की परिभाषा स्पष्ट है, ‘धारणात् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा:’ अर्थात् धर्म वही है, जो प्रजा का धारण-पोषण करे। यहां धर्म का अर्थ न तो संप्रदाय है और न कर्मकांड, बल्कि वह सामाजिक-नैतिक व्यवस्था है, जो हर व्यक्ति के हित, सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा करे। यही आगे चलकर मानवाधिकार का मूल आधार बनता है। वेदों में मानव की समानता का उल्लेख है। ऋग्वेद कहता है- ‘अयं बन्धुरयं नेत्य:’ अर्थात् ‘यह अपना है और वह पराया है- ऐसी संकीर्ण सोच दुर्जन की है।’ यहां से स्पष्ट है कि सम्पूर्ण मानवजाति एक परिवार है। महानारायण उपनिषद् भी कहता है , ‘सर्वे मनुष्या: समाना’ अर्थात सभी मनुष्य समान हैं। यह समानता का सिद्धांत आधुनिक मानवाधिकारों के आधारभूत तत्व- नॉन-डिस्क्रिमनेशन (भेदभाव रहित अधिकार) के समान है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, सार्वभौमिक मानवाधिकार का शाश्वत आधार कहा जा सकता है। महाआरण्यक उपनिषद् में वर्णित—‘अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम।’ उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात् संकुचित मनुष्य अपना-पराया देखता है, उदारजन समस्त पृथ्वी को परिवार मानते हैं। यही भाव अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्र- 1948 के मूल में निहित ‘यूनिवर्सल ब्रदरहुड’ की जड़ है।
वेद-उपनिषदों में मानव- स्वतंत्रता और गरिमा का भाव स्पष्ट है। भारतीय ज्ञान का केंद्रीय सूत्र है- ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (बृहदारण्यक उपनिषद्)और ‘तत्त्वमसि’(छान्दोग्य उपनिषद्)। इन महावाक्यों का आशय है कि प्रत्येक मनुष्य मूलत: दिव्य, स्वतंत्र और सम्मानयोग्य है। यह मनुष्य के ‘इन्ट्रिजिक डिग्निटी’ की स्थापना करता है, जो आधुनिक मानवाधिकारों की नींव है। स्वतंत्र इच्छा और व्यक्तिगत स्वाधीनता भी मानवाधिकार का हार्द है। उपनिषद् कहता है- ‘उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् उठो, जागो और अपने सर्वोत्तम लक्ष्य को प्राप्त करो। यह स्वाधीनता, आत्मविकास और व्यक्तिगत क्षमता को विकसित करने का आह्वान है। गीता विश्वमानव के लिए अद्वितीय मार्गदर्शक ग्रंथ है। भगवद्गीता में कहा गया- ज्ञानी व्यक्ति सभी को समान दृष्टि से देखता है- जाति, वर्ण, जन्म या सामाजिक स्थिति के आधार पर भेद नहीं करता। यह आधुनिक मानवाधिकार के मूल सिद्धांत ‘इक्वलिटी बिफोर ला’ (कानून के समक्ष समानता) का प्राचीन स्वरूप है। बुद्ध ने दया, करुणा, समता, मैत्री को मानव समाज का आधार माना। महाभारत (शांति पर्व) में लिखा है- राजा का सुख प्रजा के सुख में है, उसका कार्य प्रजाहित है। यह लोकतांत्रिक शासन और नागरिक अधिकारों का प्रारंभिक रूप है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र नागरिकों की सुरक्षा, न्याय, धन, जीवन, संपत्ति और गरिमा की रक्षा की स्पष्ट व्यवस्था करता है। कौटिल्य कहते हैं- राजा का धर्म प्रजा के हित की रक्षा करना है। कबीर, तुलसी, नानक, रविदास, मीरा आदि संतों ने जाति-भेद, सामाजिक दमन और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई। आधुनिक भारत में राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज में स्त्री-अधिकार और मानवीय गरिमा की स्थापना की। महात्मा गांधी की अहिंसा, सत्य, स्वराज और सर्वोदयी विचारधारा आधुनिक मानवाधिकारों से पूर्णत: मेल खाती है। ‘अंत्योदय’ की अवधारणा विश्व-कल्याण का सर्वोच्च मानदंड है। भारतीय संविधान में समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, सामाजिक न्याय और मौलिक अधिकारों की नींव डॉ अंबेडकर ने उपनिषदों, बौद्ध-धर्म और भारतीय दार्शनिक परंपरा से ही ग्रहण की थी। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14-32) भारतीय ज्ञान-परंपरा के मूल सिद्धांतों की आधुनिक अभिव्यक्ति हैं। संविधान का मौलिक अधिकार भारतीय ज्ञान परंपरा का मूल है। समानता का अधिकार ‘सर्वे मनुष्या: समाना’, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता , अहिंसा, आत्मदृष्टि, स्वतंत्रता (विचार, धर्म) "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" शोषण-निवारण का आधार है। इस प्रकार भारतीय संविधान की मूल आत्मा भारत की शास्त्रीय परंपरा से निकलती है।
दुनिया जहां मानवाधिकारों को केवल ‘कानूनी अधिकार’ मानती है, वहीं भारत बताता है कि अधिकार तभी फलते हैं जब वे कर्तव्य, नैतिकता और विश्वबंधुत्व से जुड़े हों। भारतीय ज्ञान-परंपरा यह भी सिखाती है कि अधिकार केवल मनुष्यों के नहीं, प्राणियों के भी हैं (जैन-बौद्ध परंपरा), प्रकृति भी अधिकारों की अधिकारी है (ऋग्वेद में नदी-पहाड़ देवस्वरूप माने गए हैं), और मानवाधिकारों का अंतिम उद्देश्य सर्वभूतहिताय है- सभी प्राणियों का कल्याण। भारतीय ज्ञान-परंपरा मानवाधिकार की आधुनिक अवधारणा से कहीं व्यापक, गहरी और समृद्ध है। वेद-उपनिषदों में ‘समानता’, ‘स्वतंत्रता’, ‘गरिमा’ और ‘विश्वबंधुत्व’ के सिद्धांत न केवल प्रतिपादित हुए, बल्कि आचार-व्यवहार में स्थापित भी किए गए। आज जब विश्व मानवाधिकार संकट, युद्ध, हिंसा, असमानता और पर्यावरणीय चुनौतियों से जूझ रहा है, भारतीय दृष्टि-वसुधैव कुटुम्बकम्, अहिंसा, समता, धर्म, और सर्वोदय- अंतरराष्ट्रीय शांति और न्याय की दिशा में अनिवार्य मार्गदर्शक बन सकती है। भारत की शास्त्राधिष्ठित मानवाधिकार चेतना इस सत्य को प्रमाणित करती है- ‘मानवाधिकार केवल कानून की देन नहीं; यह मानव की स्वाभाविक, सार्वभौमिक और आध्यात्मिक सत्ता का अनिवार्य अधिकार है।’ भारतीय ज्ञान धारा आधुनिक मानवाधिकारों को मात्र विधिक दायरे में नहीं, बल्कि मानव-धर्म और नैतिक कर्तव्यबोध के रूप में समझने की दृष्टि प्रदान करती है। भारतीय ज्ञान परंपरा और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के आदर्श एक-दूसरे के पूरक हैं, जो मानव समाज को शांति, समानता और मानवीय गरिमा की ओर अग्रसर करते हैं।
Updated on:
09 Dec 2025 06:49 pm
Published on:
09 Dec 2025 06:48 pm
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