भारत जैसे विविधता वाले देश में शिक्षा नीति हमेशा से एक भावनात्मक मुद्दा भी रही है। खासकर हिंदी को अनिवार्य रूप से पढ़ाने के प्रयासों का कई राज्यों में क्षेत्रीय अस्मिता के लिए खतरा महसूस कर जबरदस्त विरोध होता रहा है। हमें इसका खमियाजा भी भुगतना पड़ा है। आजादी के सात दशकों में देश में कोई सर्वमान्य संपर्क भाषा विकसित नहीं हो पाना गंभीर चिंता की बात है। हालांकि यह भी सच है कि भाषा किसी सरकारी नीति की मोहताज नहीं होती और स्वत: विकसित होती रहती है। हिंदी भी इसी तरह पूरे देश में संपर्क भाषा के रूप में धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही है।
हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इस बात से इनकार किया है कि सरकार किसी भाषा को अनिवार्य बनाने जा रही है। फिर भी कस्तूरीरंगन समिति की सिफारिशों के मसौदे की जो बातें लीक हुई हैं, उनसे पता चलता है कि त्रिभाषा फार्मूले की बात आगे बढ़ रही है। इसमें पांचवीं कक्षा तक स्थानीय भाषा और आठवीं कक्षा तक हिंदी अनिवार्य की जा सकती है। विज्ञान और गणित की पढ़ाई चाहे हिंदी में हो या अंग्रेजी में, लेकिन सिलेबस देशभर में समान रखने की सिफारिश भी की गई है। यदि ये सिफारिशें पूरे देश में लागू होती हैं तो बड़े बदलाव की ओर यह एक अहम कदम होगा। लेकिन इसे लागू करने की पहली शर्त यही है कि हिंदी को लेकर न तो राजनीति हो और न ही इसे भावनात्मक मुद्दा बनाया जाए।
भाषा पर राजनीति के कारण ही तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, गोवा, पश्चिम बंगाल और असम सहित कई राज्यों में हिंदी को अनिवार्य नहीं बनाया जा सका है। पूरे देश को एक संपर्क भाषा से जोडऩे की जरूरत एक बात है और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का महिमामंडन दूसरी बात। जब हम किसी एक भारतीय भाषा को श्रेष्ठ बताएंगे तो अन्य भाषाओं में असुरक्षा-बोध पैदा करेंगे। हिंदीभाषी प्रदेशों के राजनीतिज्ञ हिंदी के विकास को राष्ट्रीयता से जोड़ते रहे हैं। इसका उन्हें राजनीतिक लाभ भले मिल जाता हो, पर हिंदी और देश को नुकसान ही होता रहा है। जिन राज्यों ने अब तक हिंदी शिक्षा को अनिवार्य नहीं बनाया है, उनमें ज्यादातर गैर-भाजपा शासित हैं। ऐसी किसी पहल की स्थिति में और उसमें राजनीति का समावेश होते ही पुराना विवाद खड़ा होने का खतरा है। नई शिक्षा नीति में हिंदी को अनिवार्य बनाने की पहल यदि भाजपा करती है तो क्या वह इसका राजनीतिक लाभ लेने से खुद को रोक पाएगी?
इसमें कोई शक नहीं कि तीन भाषाओं में स्कूली शिक्षा मासूम बच्चों पर एक तरह की ज्यादती ही है। जिन राज्यों में हिंदी मातृभाषा नहीं है, वहां के बच्चों को दो अतिरिक्त भाषाएं सीखने की मजबूरी के साथ पढ़ाई करनी होगी। उन्हें उन छात्रों से ज्यादा परिश्रम करना होगा, जिनकी मातृभाषा हिंदी है। लेकिन भूमंडलीकरण के जिस दौर में बच्चे बड़े हो रहे हैं, उसमें अच्छा यही होगा कि हम बच्चों को अधिक भाषाएं सीखने के लिए प्रेरित करें। यूरोप के ज्यादातर देशों में कम से कम एक विदेशी भाषा सीखने के लिए प्रेरित किया जाता है और फ्रांस सहित करीब 20 देश ऐसे हैं जहां छठी कक्षा तक के बच्चों को दो विदेशी भाषाएं सिखाई जाती हैं। हालांकि अमरीका में यह प्रक्रिया धीमी है। वहां सिर्फ 18.5 फीसदी (2008 का सर्वे) बच्चे ही विदेशी भाषा सीख रहे हैं। विकास के शीर्ष पर बैठे देश को भले ही इसकी आवश्यकता नहीं हो, विकासशील देशों को तो है।