
पीपीपी मॉडल पर काम की गहन मॉनिटरिंग जरूरी
विजय गर्ग
चार्टर्ड अकाउंटेंट और आर्थिक मामलों के जानकार
पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को आम बोलचाल की भाषा में पीपीपी कहते हैं और हिंदी में सार्वजनिक निजी भागीदारी। हम वर्षों से पीपीपी मॉडल का जिक्र सुनते आ रहे हैं। पीपीपी मॉडल के भी कई प्रकार हैं। इनमें से कुछ का यहां जिक्र किया जा रहा है। बीओओटी (बिल्ड ऑपरेट ऑन ट्रांसफर) यानी बनाओ, चलाओ, रखो और हस्तांतरित कर दो। इसमें प्रोजेक्ट सरकार का होता है। सरकार प्राइवेट कंपनी को ठेका देती है। प्राइवेट कंपनी प्रोजेक्ट बनाकर अपने पास एक सीमित समय तक रखती है, ताकि उसकी लागत और कुछ लाभ निकल आए। फिर प्रोजेक्ट सरकार को ट्रांसफर कर दिया जाता है। इस मॉडल के तहत आजकल सबसे ज्यादा राजमार्गों को बनाया जा रहा है। इस मॉडल का एक लाभ यह है कि जनता को अच्छी सड़क समय पर मिल जाती है। सरकार अपनी जेब से पैसा नहीं लगाती और जनता पर अतिरिक्त टैक्स का बोझ नहीं पड़ता। अच्छी गुणवत्ता और समय पर प्रोजेक्ट का पूरा होना बीओओटी की विशेषता है, लेकिन कुछ ऐसे उदाहरण भी इस मॉडल के देखे गए हैं, जहां जनता की जेब कटी है।
वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली नोएडा डायरेक्ट फ्लाईवे को लेकर एक बड़ा फैसला दिया था। यह फ्लाईवे बीओओटी के आधार पर पीपीपी मॉडल पर बना था। निजी कंपनी ने 407 करोड़ रुपए में पुल बनाया, लेकिन 2200 करोड़ रुपए की टैक्स वसूली के बावजूद टोल टैक्स को वर्ष 2031 तक बढ़ा लिया। निश्चित ही इसमें सरकारी सिस्टम की मिलीभगत रही होगी। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और टोल टैक्स वसूली खत्म हुई। यानी पीपीपी मॉडल से सड़क तो बन गई, लेकिन कंपनी की मनमानी को सरकारी स्तर पर रोका नहीं गया। सरकार के लिए जरूरी है कि वह बीओओटी के तहत बने प्रोजेक्ट्स की लगातार मॉनिटरिंग भी करे।
पीपीपी का एक और प्रचलित मॉडल बीओटी यानी प्राइवेट कंपनी प्रोजेक्ट को बनाएगी, ऑपरेट करेगी और ट्रांसफर कर देगी। प्रोजेक्ट को प्राइवेट कंपनी बनाएगी, जो लागत होगी, वह सरकार उसे दे देगी, जैसे आज हाईवे प्राइवेट कंपनियां बना रही हैं, लेकिन टोल टैक्स की वसूली सरकार कराती है। पीपीपी का तीसरा प्रचलित मॉडल है सीसीटी यानी कंपलसरी कॉम्पिटिटिव टेंडरिंग (अनिवार्य प्रतिस्पर्धी ठेके) इसमें सरकार किसी भी प्रोजेक्ट का एक एक साल बाद टेंडर रिन्यू करती है। जैसे रेलवे में खाना बनाने का ठेका, विज्ञापनों का ठेका आदि। जो प्राइवेट कंपनी अधिक बोली लगाती है, उसे कार्य मिल जाता है। एक साल बाद फिर ठेका निकाला जाता है। इस मॉडल में सरकार को अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति होती है, जबकि मैनेजमेंट निजी हाथों में होता है।
इन दिनों तो सरकार के अधिकांश काम पीपीपी मॉडल पर आ गए हैं, लेकिन कुछ ऐसी दुर्घटनाएं सामने आई हैं, जिनसे पीपीपी मॉडल की पोल खुल गई है और इसमें भ्रष्टाचार के बड़े मामले सामने आए हैं। ताजा उदाहरण गुजरात में मोरबी पुल हादसे का है। मोरबी में पुल का रख-रखाव और संचालन एक ऐसी कंपनी को पीपीपी मॉडल पर चलाने के लिए दे दिया गया, जिसे उस काम का कोई अनुभव नहीं था। हादसा हुआ, सरकार ने अपना पल्ला झाड़ लिया और पूरी तरह जवाबदेही कंपनी पर छोड़ दी। ऐसे ही बिहार में एक पुल बनने के बाद बह गया। साफ है सरकारी कार्य प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार की दीमक पीपीपी मॉडल पर भी लगने लगी है, क्योंकि ऐसी कोई ठोस मैकेनिज्म नहीं है, जिसके तहत पीपीपी मॉडल की फुलप्रूफ मॉनिटरिंग या गुणवत्ता जांच की जा सके। सरकार के नुमाइंदे या अधिकारी ही प्रोजेक्ट को स्वीकृत करते हैं और अपनी पसंद की कंपनियों को दे देते हैं। यह स्थिति बदलनी होगी।
Published on:
13 Jan 2023 09:08 pm
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