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विश्व परिदृश्य: जो हो रहा है, उसका सारा दोष बाइडन पर मढ़ना उचित नहीं

बाइडन सरकार बने अभी सिर्फ सात महीने हुए हैं और अफगान युद्ध - जिसका अंत ऐसा ही होना था - दशकों से विपदा ही बना हुआ है।

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विश्व परिदृश्य: जो हो रहा है, उसका सारा दोष बाइडन पर मढ़ना उचित नहीं

विश्व परिदृश्य: जो हो रहा है, उसका सारा दोष बाइडन पर मढ़ना उचित नहीं

मार्गरेट सलिवन

(लेखिका मीडिया स्तम्भकार और न्यूयॉर्क टाइम्स की पब्लिक एडिटर रह चुकी हैं)
(द वाशिंगटन पोस्ट)

यदि कभी किसी बड़ी और ब्रेकिंग न्यूज स्टोरी के लिए समाचार मीडिया को ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत करने और बहुत ही सावधानी के साथ अलग-अलग राय में बंटे हुए दोषारोपण से बचने की जरूरत हो, तो वह स्टोरी है तालिबान के सामने अफगानिस्तान के घुटने टेक देने की, अफगानिस्तान के पतन की। बजाय इसके बीते कुछ दिनों से हम जो कुछ देख रहे हैं वह पूरे घटनाक्रम का कवरेज 'हारने वालों और जीतने वालों' को चिह्नित करने के बखूबी देखे-भाले अंदाज में करने का ही एक और उदाहरण मात्र है। खबर पर ज्ञान इस कदर हावी है कि हालात अभी तक पूरी तरह किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे और उसके दूरगामी राजनीतिक परिणामों पर चर्चा हो रही है। चूंकि आमजन अंतरराष्ट्रीय खबरों से ज्यादा सरोकार नहीं रख पाता, ऐसे में यह 'जल्दबाजी की पत्रकारिता' हानिकारक और गुमराह करने वाली साबित हो सकती है।

पूरे सप्ताहांत छोटे-बड़े न्यूज ऑर्गेनाइजेशन और राजनीतिक हलकों में यही 'बारीकी से दूर अतिवादी कवरेज' छाया रहा। माना हालात चिंताजनक हैं और तालिबान के अफगानिस्तान पर नियंत्रण वाली तस्वीरें चौंकाने वाली हैं लेकिन इसके लिए सबको बराबरी से दोषी ठहराना अधिक उचित होगा। बाइडन सरकार बने अभी सिर्फ सात महीने हुए हैं और अफगान युद्ध - जिसका अंत ऐसा ही होना था - दशकों से विपदा ही बना हुआ है।

पार्टियां बदलीं, अफगान के हालात नहीं: इसकी शुरुआत रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने 9/11 के आतंकी हमलों के बाद की। उसके बाद राष्ट्रपति ओबामा के दो कार्यकाल व ट्रंप की चार साल की सरकार रही, लेकिन अफगानी हालात ज्यों के त्यों बने रहे। अमरीकी सरकारें अफगानिस्तान के हालात पर अपनी ही जनता से झूठ बोलती रहीं। वाशिंगटन पोस्ट ने 2019 के अपने प्रोजेक्ट 'द अफगानिस्तान पेपर्स' में इसे बखूबी स्पष्ट किया है। वियतनाम में अमरीकी हस्तक्षेप की गुप्त दास्तान पेंटागन पेपर्स से कभी-कभार इसकी तुलना की जाती है। इसका आधार पूर्व में अप्रकाशित दस्तावेजों के 2000 से अधिक पन्ने हैं। 'वरिष्ठ अमरीकी अधिकारी 18 साल के अफगाान युद्ध की सच्चाई नहीं बता सके। लुभावनी घोषणाएं करते रहे जबकि जानते थे कि ये झूठ है और ऐसे सही प्रमाण छिपाते रहे जिनसे जाहिर हो सकता था कि यह युद्ध नहीं जीता जा सकता।' यही प्राजेक्ट अब पोस्ट रिपोर्टर क्रेग व्हिटलॉक की एक किताब का आधार है, जिसने पिछले साल जॉर्ज पोल्क अवॉर्ड जीता। यदि पुलित्जर पुरस्कार बोर्ड ने इस पर ध्यान दिया होता तो इसके अहम खुलासों ने अब मजबूत ऐतिहासिक संदर्भ मुहैया कराए होते।

क्या बाइडन सरकार अफगानिस्तान के पतन को सही तरीके से नहीं संभाल पाई? हां, और इस बारे में खुल कर बोलने की जरूरत है। जैसा कि न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है - 'बाइडन के बहुत से सहयोगी जो उनके इस युद्ध से अमरीका को बाहर निकालने के निर्णय को सही ठहरा रहे हैं, उनका भी मानना है कि वापसी की प्रक्रिया में बाइडन ने बहुत-सी गलतियां की हैं।' लेकिन जो सही नहीं है, वह फॉक्स न्यूज पर टेक्सास से कांग्रेस के रिपब्लिकन ऑगस्ट फ्लूगर का बाइडन सिद्धांत को 'बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत रोको!' के रूप में परिभाषित करना। इसके जवाब में किसी न्यूज चैनल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। ऐसे ही गलत विचारधाराएं पनपती हैं कि दो दशकों के युद्ध में खरबों का खर्च, हजारों जानें जाना और अंतत: यह नतीजा अकेले बाइडन की गलती है, क्योंकि वही हैं जिन्होंने इस युद्ध को खत्म किया। जो भी सामने आया, उसने यही दोहराया। कुल मिलाकर जब इतिहास बन रहा हो, तब यह सही रवैया नहीं है।