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OPINION: हम महिलाओं की परेशानियों को समझते हैं, लेकिन क्या महसूस भी करते हैं?

बतौर पुरुष आप महिलाओं को होने वालीं दिक्कतों को समझने की कोशिश तो कर सकते हैं, पर वाकई उसे महसूस करना मुश्किल ही है...

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अगले जन्म मोहे 'बिटिया' ही कीजो... ये इसलिए जरूरी है कि जब तक 'जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई' यानी समझना और महसूस करने में जो फर्क है, वो इसी से दूर हो सकता है।

दीपिका-राधिका का सवाल बहुत मौजूं है

आज ये विषय इसलिए उठा रहा हूं कि हाल ही में जिस तरह बॉलिवुड एक्ट्रेस दीपिका पादुकोण और राधिका आप्टे ने फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं को 16 घंटे तक काम करने की बात का विरोध करते हुए इस अहम विषय को उठाया है, उस पर चर्चा जरूरी है। कई बार चर्चाएं ही किसी मुद्दे की गंभीरता और उसके प्रति हमें नए नजरिए से सोचने को प्रेरित करती है। दोनों एक्ट्रेस अपने मदरहुड को एन्जॉय कर रही हैं और उनकी प्राथमिकता क्या है, ये उन्होंने बताया है। साथ ही वो वर्क लाइफ बैलेंस के जरिए प्रोफेशनल टास्क भी करना चाहती हैं। पर बात यहां सिर्फ मदरहुड या उनके वर्क-लाइफ बैलेंस की नहीं है।

बतौर संवेदनशील समाज हमें उनके जरिए दुनिया की आधी आबादी के प्रति इस सोच को इंप्लिमेंट करना होगा। कई बार पीरियड लीव को लेकर भी चर्चाएं होती हैं, पर अभी तक उस पर कुछ ठोस फैसला नहीं हो पाया है। हर महीने इस नेचुरल टास्क से उनको जूझना ही पड़ता है और ऐसे में दर्द या एक अनइजीनेस (Uneasyness) से तो हर महिला गुजरती ही है। पर बतौर समाज हम इस पर संवेदनशील नहीं होते। प्रोफेशनल तौर पर पुरुष और महिला दोनों ही बराबर हैं और दोनों के ही समान अधिकार हैं, पर व्यवहारिक तौर पर कई बार महिलाओं को करियर की दौड़ में पिछड़ना पड़ता है।

इंदिरा नूई ने जैसा एक इंटरव्यू में कहा था कि जब एक प्रोफेशनल की जिंदगी में वो दौर आता है, जब उसका करियर लीडरशिप रोल की ओर बढ़ता है, तो ये वही समय होता है जब एक फीमेल एंप्लॉई अपनी फैमिली प्लान कर रही होती है और फिर उसे अनचाहे मन से पीछे हटने का फैसला लेना पड़ता है। ऐसे में महिलाओं के लिए करियर की राह में आगे बढ़ने की स्पीड स्वत: कम हो जाती है। आज भी मैटरनिटी लीव पर कंपनियां और बॉस दोनों ही दिल से कितना तैयार होते हैं, ये कहना मुश्किल है पर बतौर पुरुष मुझे लगता है कि ये सब लिखना जितना आसान है, उसको इंप्लिमेंट करना उतना ही मुश्किल। क्योंकि हमारा माइंडसेट अभी इस तरह का है ही नहीं।

ये बिल्कुल ऐसी ही बात है कि जब हम किसी शोकसभा में जाते हैं तो कुछ समय के लिए मोह-माया, क्रोध-भय, लोभ-लालच सबसे दूर हो दुनिया को बहुत यथार्थवादी नजरिए से देखते हैं, पर फिर वहां से बाहर आने के बाद अपनी दुनिया में रम जाते हैं और सभी तरह के क्रियाकलापों में व्यस्त हो जाते हैं।

इसलिए ऐसे विषयों पर लिखना-पढ़ना जरूरी है, क्योंकि कोई भी परिवर्तन अचानक नहीं आता है पर शनै: शनै: ही सोच से नजरिया बनता हैं और फिर सर्वागीण विकास प्रगतिशील गति से चलता है।