
विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
प्राप्त कला समीक्षक
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर खबर दिखी लंदन बाबा नहीं रहे। हालांकि यह भी सच है कि दशकों से वे हमारे बीच होकर भी हमारे लिए अनुपस्थित थे। कहते हैं सिर्फ अर्जित कला ही है, जिसे न तो कोई छीन सकता, न ही चुरा सकता है, कला का साथ जीवन-पर्यन्त बना रहता है। लंदन बाबा ने अपनी 83 वर्ष की आयु में सब कुछ खो दिया था, लेकिन उनके हाथों के जादू का साथ उनके जीवन के अंतिम पल तक बना रहा। अफसोस हमारे पास उसे समझने और स्वीकार करने वाली संवेदना नहीं थी।
मैंने ईश्वर प्रसाद चंद्र गुप्ता उर्फ लंदन बाबा को जब पहली बार 2015 में देखा था , तब मेरे पास उनके बारे में बस सुनी सुनाई जानकारियां ही थीं। वे बिहार कला पुरस्कार प्राप्त करने अपने गांव मधुबनी से पटना आए थे। सभागार की भव्यता में पुरस्कृत होने वाले सजे संवरे लकदक कलाकारों के बीच लंदन बाबा एकदम अलग दिख रहे थे। मानना कठिन था कि ये जो पहली पंक्ति में बदरंग कपड़ों में जो बैठे हैं, वे ही लंदन बाबा हैं। वे चाक्षुष कला के क्षेत्र में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्राप्त करने आए थे, जिनके बनाए म्यूरल से लंदन आज भी गौरवान्वित हो रहा है। वे 1968 में ही ललित कला अकादमी के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हो चुके थे। आज उनके नहीं रहने पर यह याद करना वाकई हृदयविदारक है कि श्रेष्ठता किसी व्यक्ति के लिए किस हद तक अभिशाप भी बन सकती है।
पता नहीं ईश्वर चंद्र को लंदन बाबा पुकारने की शुरुआत किसी ने व्यंग्य से की थी या सम्मान से, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि लंदन ने बाबा को भरपूर प्यार और सम्मान दिया था। उनकी प्रतिभा का ही कमाल था कि मूर्तिकला में शोध के लिए कॉमनवेल्थ स्कॉलरशिप के लिए उनका चयन तीन बार हुआ। पहले दो बार वे अलग-अलग कारणों से जा नहीं सके, इसकी अलग कहानी है। तीसरी बार में वे एक वर्ष के लिए लंदन गए, लेकिन उनकी कला से प्रभावित होकर उन्हें वहां नौकरी देते हुए नागरिकता भी प्रदान कर दी गई। वे सात वर्ष तक वहां रहे। उन्होंने वहां कई अविस्मरणीय म्यूरल भी बनाए। जिंदगी ने फिर करवट ली और पारिवारिक मजबूरियों के कारण उन्हें फिर वापस मधुबनी लौटना पडा। उन्हें उम्मीद थी कि इंग्लैंड से लौटने के बाद यहां सरकार या समाज के जरिए प्रतिभा के अनुकूल कुछ सम्मानजनक व्यवस्था अवश्य हो जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। वे जो कुछ लंदन से लेकर आए थे, वे प्रमाण पत्र और अवार्ड तक या तो खो गए या चोरी हो गए।
शायद ईश्वर चंद्र को धारा के साथ चलना कभी पसंद ही नहीं आया। मधुबनी में मिथिला चित्रकला छोड़, उन्होंने आधुनिक कला की बांह थामी। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसके बावजूद पेंटिंग की पढ़ाई के लिए पहले पटना और फिर लखनऊ चले गए। आर्थिक दबाव में लखनऊ छोड़ कर उन्हें लौटना पड़ा, लेकिन कॉलेज इस प्रतिभाशाली विद्यार्थी को खोना नहीं चाहता था, सो स्कालरशिप दी गई, लेकिन उन्हें फिर भुला लिया गया। यहीं उन्हें अपने अधिकार की लड़ाई के लिए जेल भी मिली और पहली नौकरी भी यहीं मिली।
उनकी समझ अपने अंतिम समय तक कितनी संतुलित थी यह उनके खींचे स्केच से ही नहीं, इससे भी समझ सकते हैं कि, वे सरकार से और कुछ नहीं बस इतना चाहते थे कि उनकी कृतियां सुरक्षित रखी जाएं। उनकी यह भी चिंता थी कि एक ईश्वर के साथ जो हुआ, सरकार क्या ऐसी व्यवस्था नहीं कर सकती कि ऐसा दूसरे किसी ईश्वर के साथ न हो। प्रतिभाओं की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
Updated on:
11 Jun 2023 08:51 pm
Published on:
11 Jun 2023 07:34 pm
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