पर्यटन के इस दौर में आजीविका के लिए जिस तरह गांववासियों ने पर्यटकों के जुटने वाली जगहों पर उनके साथ नाचना-गाना किया और तस्वीरें खिंचवाई, उसने भारत के स्मारकों की याद भी दिला दी। लेकिन एक अंतर यह है कि वे अपनी वेशभूषा और कला की परम्परा को बनाए हुए हैं। वहां के सफारी गाइड मसाई जनजाति से हैं अपनी परम्परागत वेशभूषा पहनने के महत्त्व को जानते-समझते हैं। चूंकि मैं सालों से हमारे पर्यटक गाइडों की वेशभूषा को स्थानीय परम्परा से जोडऩे की बात करती रही हूं, मुझे बड़ा अफसोस हो रहा था कि हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते जबकि देश के प्रधानमंत्री की हाल की जापान की यात्रा में पहनी गई जैकेट तक की चर्चा हो रही है और हमारा ओलम्पिक दल भी अपनी पोशाक के कारण आकर्षण का केंद्र रहा है। हमें हमारा गाइड हमारे गांव जाने से पहले अपनी जनजाति के बारे में काफी कुछ बता चुका था। मसाई जनजाति अफ्रीका की सभी जनजातियों में दुनियाभर में सबसे ज्यादा जानी जाती है।
इसका बड़ा कारण उनका सफारी से जुड़ना है। कई मायनों में वन्य पर्यटन व ग्रामीण पर्यटन का संगम देखना-समझना हो तो वहीं जाना होगा। भारत में दोनों किस्मों की घोषणाएं जमीनी हकीकत से दूर और सहज नहीं होती हैं, तभी तो विश्वप्रसिद्ध रणथंभौर के शिल्प केंद्र की हालत खस्ता है, जहां परंपरा के नाम पर दुकानें चलती हैं या सफारी के टिकट बिकते हैं।
मसाई जनजाति घुम्मकड़ जाति रही है जिनका जीवन पशुपालन से लेकर पशुभक्षण पर निर्भर करता है। अपने पशुओं के लिए चारागाह ढूंढते-ढूंढते इन्होंने केन्या के पूर्वी इलाके में अपना डेरा डाला और आज भी यह जनजाति अपने नियम-कानून से चलती है। इनके नियमों पर २१वीं सदी के नियमों का कोई बंधन नहीं है। यही कारण है कि हम जैसों को भले ही उनके नियम-कायदे समझ न आएं पर दिलचस्प अवश्य लगते हैं। वे अपने जीवन को अपनी तरह से अपने समूह में जीना चाहते हैं। इसी कारण विदेशी शासनकाल में वे अपना धर्म बदलने के लिए तो बाध्य हुए, लेकिन अपनी परंपराओं को नहीं छोड़ा। नाम भी वही रहा, बस बाहर के लिए आगे जुड़ा एक अंग्रेजी नाम, जैसा कि हमारे गाइड ने बताया। उसे अपने घर से नाम मिला मारुकुप्पा मतुतुआ, और आगे जुड़ गया रिचर्ड। इनकी सम्पन्नता की निशानी है इनकी गायों की संख्या। यहां कन्या पक्ष विवाह संबंध के लिए तभी राजी होता है जब वर पक्ष कम से कम ३० गाय दे। एक बड़ी बात यह कि हजारों मील दूर इनकी एक प्रथा ने मुझे नजर उतारने की भारतीय प्रथा थूथकारा की याद दिला दी। यहां बच्चे की पैदाइश पर उसके सिर पर थूक कर स्वागत किया जाता है और वधू को उसके सिर पर पिता थूक कर विदा करता है।
यही नहीं मेहमान का स्वागत भी उसकी हथेली पर थूक कर किया जाता है। एक खास प्रथा है बचपन में सामने वाले कुछ दांत निकालने की ताकि बच्चों को पेट की बीमारी न हो। मसाई चेहरे की खास पहचान है दांत की खाली जगह।
जब हम मसाई गांव पहुंचे तो याद आईं राजस्थान की ढाणियां। गांव में एक घेरे में बसी कुछ मिट्टी की झोपड़ियां थीं उनकी अपनी बनाई गईं, न कि ग्रामीण पर्यटन के नाम पर बसाया गया गांव। गांव में पहुंचने पर गाइड की भूमिका नहीं रहती, मुखिया अंदर आने के लिए पैसा ले कर टिकट देता है, अपनी जाति से जुड़े और गांव के नियम-कायदे बता कर अपने लोगों से डांस करवा कर स्वागत करता है जिसमें मेहमान भी शामिल हो सकते हैं। गांव के पुरुष पशु चराने गए थे तो महिलाएं हाथ से बनाई गई चीजों का बाजार सजा कर मेहमानों का इंतजार कर रही थीं। इनमें मुख्यत: मोती से बने पारंपरिक आभूषण थे जो मुझे अपने कालबेलियों की याद दिला रहे थे। पर वे भी अब कहां पहनते हैं! मसाई महिलाएं तो वे ही आभूषण पहनने में अपनी सुंदरता को मानती हैं। हमने भी वैसे ही कुछ आभूषण खरीदे, तस्वीरें खिंचवाईं। और फिर घिरी घनघोर घटा, बरसात शुरू हुई। उन्होंने अपनी दुकान समेटनी शुरू की और हम लौट पड़े अपने सामान समेटने। सुबह वापसी थी पर अभी इस डायरी का आखिरी भाग बाकी है जब आप वहां की कुछ चिड़ियों के बारे में जानेंगे।