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आहार को माध्यम बनाएं भारतीयता के प्रचार का

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

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अन्न को हमारे यहां साक्षात ब्रह्म माना गया है। कहते भी हैं- जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन। देश-दुनिया में इन दिनों मोटे अनाज के सेवन की बातें भी खूब हो रही है। श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश ने अपने आलेख में तीस वर्ष पहले ही लिखा था कि दुनिया में भारतीयता के प्रचार का अन्न बेहतर माध्यम हो सकता है। इससे प्रबल माध्यम कोई दूसरा नहीं है। उन्होंने आलेख में यह भी बताया भारतीयता के प्रचार का यह काम किस-किस रूप में किया सकता है? विश्व खाद्य दिवस (16 अक्टूबर ) के अवसर पर आलेख के प्रमुख अंश:

अं ग्रेजी में एक कहावत है- केच बाई स्टोमक (पेट से पकड़ो)। हमारे यहां भी किसी को वश में करना होता है तो कहा जाता है कि उसके पेट में घुस जाओ। सचमुच इन मान्यताओं के पीछे गहरा मर्म छिपा हुआ है। अन्न का मन से नाता भी सब कोई जानते हैं और कहते हैं- ‘जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन।’ अन्न को साक्षात ब्रह्म माना गया है। अन्न में पांचों महाभूत, ज्ञान और क्रिया को शामिल किया गया है और आहार में सातों प्रकार के अन्न का समावेश है। इस अन्न के भीतर गहरा मर्म छिपा हुआ है। अन्न के द्वारा तन और मन दोनों को पकड़ा जा सकता है। मेरी यह धारणा भी पक्की हुई है कि यदि हम विदेशों में भारतीयता का प्रचार करना चाहते हैं तो अन्न या आहार को माध्यम बनाना पड़ेगा। इससे अधिक प्रबल माध्यम दूसरा कोई है भी नहीं। प्रश्न यह है कि यह काम कैसे हो? यह दायित्व हमें, भारतीय समाज के रूप में अपने आपको लेना पड़ेगा। सरकार के पास जो साधन हैं सीमित हैं और उनका भी उपयोग ठीक से नहीं होता। हमारा नौकरशाही का तंत्र ऐसा है कि उस पर किसी राष्ट्रीय अभियान के लिए भरोसा नहीं किया जा सकता। हमारे समाज में साधनों की कमी नहीं। कमी है तो राष्ट्रीय भावना की। हमारे देश में मंदिर, मठ और सम्प्रदायों के साधनों का उपयोग विदेश में भारतीयता के प्रचार करने में लगाया जा सकता है। आहार को प्रचार का माध्यम बनाएं।
अन्न क्षेत्र व अन्न सदावर्त हमारे देश में चलते ही आए हैं। अब यह काम विदेशों में किया जाए। हमारे व्यापारी अपने समग्र कारोबार का एक भाग यदि विदेशों में भारतीय भोजन के प्रचार में लगा दे तो यह काम सहज हो सकता है। सरकार की भूमिका भी कम नहींं। वह अपने संबंधों का उपयोग कर प्रत्येक देश में और कुछ शहरों में भोजनशालाएं चलाने के लिए स्थान प्राप्त कर सकती हैं और भारत से जाने वाली खाद्य सामग्री पर कस्टम ड्यूटी माफ करवा सकती है। आहार सूची में प्रत्येक भारतीय प्रदेश की भोजन शैली को शामिल किया जाए। गेहूं के अलावा मक्का, बाजरा, ज्चार, जौ, चावल,चना वगैरह सभी अनाजों का उपयोग किया जाए। भारतीय भोजन की यह योजना एक कालावधि के लिए रखी जाए और बीच-बीच में इसकी समीक्षा की जाए। यूरोप और अमरीका में नीरस भोजन का एक प्रत्यक्ष प्रमाण यह देखा जा सकता है कि लोगों का पेट भर जाए, मन नहीं भरता। वे दिन भर चाय-कॉफी, चाकलेट, आइसक्रीम, सलाद, च्युइंगम और तरह-तरह की चीजें चाटते-चबाते रहते हैं। प्रजापति ने सृष्टि के जीवों को जब अन्न वितरित किया तो मनुष्य के लिए सुबह-शाम दो वक्त का भोजन विधान किया और पशुओं से कहा कि वे जब चाहें और जितना चाहें, खाएं। लेकिन भूखों मरने की सलाह किसी को नहीं दी। जब मनुष्य को भोजन में स्वाद नहीं आएगा तो स्वाभाविक है कि उसका मन नहीं भरेगा। वह दिलासा के लिए कुछ न कुछ खाएगा और उसका जबड़ा चलता रहेगा।

(17 अगस्त 1995 को ‘भारतीय भोजन को संसार भर में पहुंचाएं’आलेख से)

भारतीय भोजन में संतुष्टि
भारतीय भोजन की सबसे बड़ी विशेषता है ऋतुचर्या। हमारी भोजन व्यवस्था में यह ध्यान रखा गया है कि वह ऋतुओं के अनुकूल हो। भोजन सामग्री की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया गया है न कि आडम्बर पर। अधिकांश भारतीय तो केवल रोटी या चावल पर ही निर्भर करते हैं। एक विशेषता यह भी है कि प्रत्येक बार भिन्न आहार होता है। सुबह-शाम के भोजन में अंतर हो जाता है। मेरा अनुभव रहा है कि जब भी किसी विदेशी को देशी भोजन परोसा तो वह उससे न केवल प्रसन्न हुआ है बल्कि अति संतुष्ट भी हुआ है।