
बीते कुछ वर्षों में उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों में मानसिक असंतुलन, तनाव, अवसाद, चिंता और आत्महत्या जैसी घटनाओं का बढ़ना अत्यंत दुखद है। ऐसे में यदि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े शैक्षणिक कार्यक्रम सभी सार्वजनिक वित्तपोषित विश्वविद्यालयों में प्रारंभ किए जाएं, तो यह न केवल इस क्षेत्र में विशेषज्ञों की कमी की पूर्ति करेगा अपितु समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता भी बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगा।
जैसे-जैसे भारत आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में उतरोत्तर प्रगति कर रहा है, मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा की आवश्यकता इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि आधुनिक जीवनशैली के चलते तनाव, असंतोष और प्रतिस्पर्धा जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं। छात्र, कर्मचारी, अधिकारी और गृहिणियां सभी किसी न किसी प्रकार के मानसिक दबाव से गुजर रहे हैं। महाविद्यालय व विश्वविद्यालय स्तर पर यदि क्लिनिकल साइकोलॉजी, काउंसलिंग, बिहेवियरल साइंस, रिहैबिलिटेशन स्टडीज और न्यूरोसाइंस जैसे विषयों को प्रोत्साहन दिया जाए तो न केवल प्रशिक्षित विशेषज्ञ तैयार होंगे अपितु ये संस्थान मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियों, अनुसंधानों और समुदाय सेवा के सक्रिय केंद्र भी बन सकेंगे। यह विशेष शिक्षा विद्यार्थियों को यह समझने में सहायक होगी कि जीवन की चुनौतियों का सामना किस प्रकार संयमित और संतुलित रूप से किया जा सकता है। सार्वजनिक उच्च शिक्षण संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा से समाज और शिक्षा दोनों को भला होगा। इससे शिक्षकों और छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशीलता बढ़ेगी, जिसके फलस्वरूप परीक्षा के दबाव, असफलता या प्रतिस्पर्धा के कारण बढ़ने वाले तनाव और आत्महत्या जैसी घटनाओं में कमी आने की प्रबल संभावना है। यह उल्लेखनीय है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में छात्रों के समग्र विकास और कल्याण पर विशेष बल दिया गया है और मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा अथवा विशेष शिक्षा उसी दिशा में एक सशक्त प्रयास सिद्ध हो सकती है।
डिजिटल व सोशल मीडिया युग में बर्नआउट, डिजिटल लत और सामाजिक अलगाव जैसी नई मानसिक चुनौतियां सामने आ रही हैं, जिनसे निपटने के लिए प्रशिक्षित विशेषज्ञों की बड़ी मांग देखी गई है। यदि उच्च शिक्षण संस्थान स्तर पर पर्याप्त संख्या में ऐसे विशेषज्ञ तैयार किए जाएं तो भारत न केवल अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है अपितु वैश्विक स्तर पर भी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन सकता है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पाठ्यक्रमों के लिए अब तक कोई राष्ट्रीय स्तर का मानक ढांचा भी जन सामान्य की जानकारी में नहीं है। साथ ही, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय पुनर्वास परिषद और स्वास्थ्य मंत्रालय से अनुमोदन प्राप्त करने की प्रक्रिया भी काफी लंबी और जटिल है, जिससे नए पाठ्यक्रमों को प्रारंभ करने में सार्वजनिक वित्तपोषित विश्वविद्यालय, जो कि पहले से संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, हिचकिचाते हैं। इस विषय में करियर बनाने की युवाओं में रुचि भी कम दिखाई पड़ती है।
इन चुनौतियों का समाधान तभी संभव है जब सरकार, विश्वविद्यालय और नियामक संस्थाएं साथ मिलकर एक समन्वित रणनीति बनाएं। विश्वविद्यालयों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा केंद्र स्थापित किए जा सकते हैं, जहां पढ़ाई और परामर्श दोनों गतिविधियां साथ-साथ चलें। निसंदेह भारत जैसे विशाल और युवा राष्ट्र में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा मात्र एक शैक्षणिक सुधार नहीं अपितु सामाजिक निवेश है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि युवाशक्ति को संतुलित, उत्पादक और मानवीय बनाने हेतु मानसिक स्वास्थ्य को शिक्षा के केंद्र में रखना अनिवार्य होगा।
Updated on:
10 Oct 2025 03:40 pm
Published on:
10 Oct 2025 03:38 pm
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