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न्यायपालिका के लिए चुनौती है दहेज प्रताड़ना निरोधक कानून का दुरुपयोग

- समाज और न्याय: व्यवस्था में असंतुलन दूर करना विधिवेत्ताओं के साथ समाज का भी दायित्व।- किसी एक पक्ष को न्याय दिलाने के लिए इतने पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं होना चाहिए कि दूसरा पक्ष बिना अपराध के ही प्रताडि़त और अपमानित होता रहे।

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न्यायपालिका के लिए चुनौती है दहेज प्रताड़ना निरोधक कानून का दुरुपयोग

न्यायपालिका के लिए चुनौती है दहेज प्रताड़ना निरोधक कानून का दुरुपयोग

ऋतु सारस्वत, (समाजशास्त्री और स्तम्भकार)

बीते माह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा - 'पत्नी को जीवन से अलग करने में आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला नहीं बनता।' उल्लेखनीय है कि आरोपित को भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए और 306 के तहत निचली अदालत ने दोषी ठहराया था। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वैवाहिक जीवन में महिला के साथ घटित किसी भी घटना का संबंध दहेज से जोडऩे की प्रवृत्ति ने पुरुषों को एकतरफा दोषी सिद्ध किए जाने की मानसिकता को इस सीमा तक बढ़ाया है कि स्त्री अधिकारों के संरक्षण के लिए बना कानून विरोध का सामना कर रहा है।

एक्सीडेंटल डेथ एंड सुसाइड इन इंडिया (एजीएसआइ) 2019 की रिपोर्ट बताती है कि बीते दो दशकों में विवाहित पुरुषों की आत्महत्या की दर में 61 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि बीते वर्षों में 498ए में गिरफ्तार किए गए लोगों में से अनुमानत: 94% प्री-ट्रायल स्तर पर ही बेकसूर पाए गए, जिन मामलों में मुकदमे चले उनमें भी 85% निर्दोष करार दिए गए। उन्हें भी बिना किसी जांच के गिरफ्तार किया गया था।

ऐसे में स्वाभाविक तौर पर यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि दहेज निरोधक कानून को लचीला और पारदर्शी बनाया जाए। उल्लेखनीय है कि 2015 में गृह मंत्रालय के द्वारा कैबिनेट को प्रारूप बनाकर भेजा गया था जिसमें दहेज उत्पीडऩ कानून के दुरुपयोग का मामला सिद्ध होने पर जुर्माना बढ़ाकर 15 गुना करने का प्रावधान था परंतु यह प्रस्ताव वास्तविकता का अमलीजामा नहीं पहन पाया। गौरतलब है कि 2019 में राजस्थान की एक अदालत ने एक पिता पर अपनी बेटी के ससुराल वालों को कथित तौर पर दहेज देने के संबंध में मामला दर्ज करने का निर्देश दिया था। कुछ ऐसा ही आदेश छत्तीसगढ़ की अदालत में भी दिया गया।

आमतौर पर यही माना जाता है कि दहेज लेेना अपराध है जबकि दहेज लेने या देने या दहेज लेना या देना दुष्प्रेरित करना अपराध है जिसमें पांच साल की कैद है, जबकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दहेज मांगने पर कम से कम छह महीने और अधिकतम दो साल की सजा हो सकती है। दिल्ली की एक अदालत ने 2010 में कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'दहेज दोतरफा लेन-देन है, तो दहेज लेने-देने के मामले में सिर्फ वर पक्ष दोषी क्यों? क्यों नहीं वधू के परिजन पर भी मुकदमा चलना चाहिए।' यह महत्त्वपूर्ण एवं गंभीर प्रश्न है कि दहेज निरोधक कानून का एकतरफा इस्तेमाल क्यों?

ऐसे प्रश्नों के उत्तर ढूंढना जितना विधिवेत्ताओं की जिम्मेदारी है उतना ही बड़ा दायित्व समाज का भी है। जब 1961 में दहेज निरोधक कानून बना था तब शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इस कानून का इस सीमा तक दुरुपयोग होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इसे कानूनी आतंकवाद (जुलाई 2005) की संज्ञा देगा।

विधि आयोग ने अपनी 159वीं रिपोर्ट में स्वीकारा है कि आइपीसी की धारा 498 के प्रावधानों का दुरुपयोग हो रहा है। 'हर कोई महिलाओं के अधिकारों को लेकर लड़ रहा है लेकिन पुरुषों के लिए कानून कहां हैं जो महिलाओं द्वारा झूठे केस में फंसा दिए जाते हैं शायद इस बारे में कदम उठाने का वक्त आ चुका है।' दिल्ली की एक ट्रायल कोर्ट की टिप्पणी यह बताने के लिए काफी है कि सामाजिक व्यवस्था असंतुलित हो रही है। किसी एक पक्ष को न्याय दिलाने के लिए इतने पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं होना चाहिए कि दूसरा पक्ष बिना अपराध के ही प्रताडि़त और अपमानित होता रहे।