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बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहा विश्व, क्या लौटेगा विध्वंस से शांति की ओर!

24 फरवरीः यूक्रेन-रूस युद्ध का एक साल

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Patrika Desk

Feb 24, 2023

बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहा विश्व, क्या लौटेगा विध्वंस से शांति की ओर!

बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहा विश्व, क्या लौटेगा विध्वंस से शांति की ओर!

सुधाकर जी
रक्षा विशेषज्ञ, भारतीय सेना में मेजर जनरल रह चुके हैं
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बाइडन कह चुके हैं कि दुनिया ‘निर्णायक दशक’ का सामना कर रही है। रूस को दंडित करने की पश्चिम की सामूहिक कोशिश रूस को चीन के करीब लेकर आई है, जिसकी नजर ताइवान पर लगी है। रूस की आक्रामकता के चलते यूरोपीय देश एकता प्रदर्शित कर रहे हैं, पर यह युद्ध के रुख पर निर्भर करेगी। कुछ भी हो, पुतिन तब तक युद्ध खत्म करने का जोखिम नहीं उठा सकते जब तक वह चुकाई जा रही राजनीतिक और भू-राजनीतिक कीमतों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते।

वैश्विक राजनीति पर ऐतिहासिक रूप से एक से अधिक ध्रुवों का दबदबा रहा है। 1990 के दशक में शक्ति-संपन्न अमरीका के एकपक्षवाद में गिरावट के संकेत हाल के वर्षों में उजागर होते रहे हैं। पिछले वर्ष 24 फरवरी को ‘नाटो सहयोगी’ यूक्रेन पर रूस के हमले ने सोवियतकाल के बाद न केवल यूरोप के सुरक्षा ढांचे को चुनौती दी है बल्कि 21वीं सदी की भू-राजनीति की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक को बदलती वैश्विक व्यवस्था की शुरुआत के रूप में पेश किया है।

वर्तमान का वैश्विक रणनीतिक परिदृश्य बड़ी ताकतों जैसे चीन, रूस, अमरीका, यूरोपीय संघ और जी-20 में शामिल सभी देशों के बीच बढ़ते ध्रुवीकरण से स्पष्ट देखा जा सकता है। फलस्वरूप 21वीं सदी की वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रमुख शक्तियां व्यक्तिगत रूप से अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए प्रतिबद्धता से ज्यादा सम्प्रभुता एवं राष्ट्रीय प्राथमिकताओं पर जोर दे रही हैं जिस पर मानव जाति का अस्तित्व निर्भर करता है। साथ ही, प्रमुख देशों के बीच तेज प्रतिस्पर्धा, उनका बढ़ता सैन्य खर्च और परमाणु, बाह्य अंतरिक्ष, साइबर और मिसाइल रक्षा में रणनीतिक क्षमता बढ़ाने से असुरक्षा बढ़ी है। इसके चलते ‘अनुमान न लगा पाने की स्थिति न्यू नॉर्मल है।’

कोविड महामारी के बाद की चुनौतियों से विकासात्मक प्रयास कई तरह से प्रभावित हुए हैं। भारत ने जी-20 की अध्यक्षता ग्रहण करने के बाद जनवरी में ‘वॉइस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट’ के आयोजन का अनूठा प्रयास किया। भारत और जी-77 के 134 सदस्य देशों में से 125 देशों के प्रतिनिधियों ने इस बात पर सहमति जाहिर की कि प्रमुख मुद्दों में यूक्रेन युद्ध और आतंकवाद के चलते अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य का विखंडन और अनाज निर्यात, तेल-गैस और उर्वरक की उपलब्धता में कमी आदि चुनौतियां शामिल हैं। हालांकि, वर्तमान वैश्विक रणनीतिक माहौल का मुख्य कारण यूक्रेन संकट है। यूक्रेन युद्ध से यह भी संकेत हैं कि विश्व की बड़ी ताकतें, अमरीका की थोड़ी अवधि वाली ‘एकध्रुवीयता’ के बाद उभरती विश्व व्यवस्था में अपनी ताकत को ज्यादा से ज्यादा करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। जाहिर है कि ऐसे में कोई भी इस बारे में निश्चित नहीं हो सकता है कि ऊंट कब किस कवरट बैठेगा।

युद्ध के कारणों के मूल में जाएं तो हम पाएंगे कि रूस और यूक्रेन के बीच गहरे सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंध हैं और रूस की पहचान में यूक्रेन का स्थान बेहद महत्त्वपूर्ण है। यहां संक्षेप में यूक्रेन के खिलाफ सैन्य अभियान की वजह जानना जरूरी है। दरअसल, नाटो का विस्तार रोकने के रूसी प्रयासों का लंबा इतिहास रहा है। 1990 के दशक में पश्चिमी नेताओं के नाटो का विस्तार न करने का बार-बार आश्वासन दिए जाने के बावजूद ऐसा नहीं किया गया। उस दशक के उत्तरार्ध से ही रूस के कई सुझावों को पश्चिमी सहयोगी देश खारिज करते रहे। हर नए देश के नाटो में शामिल होने के साथ ही रूस की खीझ बढ़ती गई।

यूक्रेन, नाटो और यूएस के बीच बढ़ते सैन्य सहयोग के कई आयामों ने रूस के लिए उसकी दहलीज पर ही उसकी सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर दिया। जवाबी कार्रवाई के रूप में विशेष अभियानों की शुरुआत इसी का नतीजा थी। 1945 के बाद यह दूसरी बार था जब बलपूर्वक राष्ट्र की सीमाएं फिर से खींची गईं। पहली बार तब, जब 1999 में नाटो ने सर्बियाई सेनाओं पर हवाई हमला किया, जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मंजूरी बगैर कोसोवो का निर्माण हुआ।
कोई यह दावे के साथ नहीं कह सकता कि रूस का यूक्रेन पर हमला कब तक जारी रहेगा और कैसे खत्म होगा क्योंकि न तो रूस और न ही यूक्रेन हथियार डालने को तैयार हैं। रूसी राष्ट्रपति पुतिन द्वारा वैश्विक ‘अंतर्काल’ को खत्म करने के साथ ही शीतयुद्ध के बाद की एकध्रुवीय प्रणाली अब एक बहुकेंद्रित प्रणाली में बदल गई है। इससे विश्व व्यवस्था हाइब्रिड खतरों के साथ अधिक जटिल और कम अनुमानित हुई है। इन्हें पहचानना और इनके बारे में कोई भी अनुमान लगाना बहुत ही मुश्किल है।

भारत की तटस्थता के पीछे बहुपक्षीय गठबंधन की नीति का अनुसरण

रूस के यूक्रेन पर हमले को लेकर भारत की सार्वजनिक तटस्थता मूल रूप से चीन और पाकिस्तान की चिंताओं से प्रेरित है। नई दिल्ली इन दोनों को स्थायी खतरों के रूप में देखती है और उसका मानना है कि मास्को के साथ दोस्ती बनाए रखने से चीन-रूस संबंध प्रगाढ़ होने से रोकने और पाकिस्तान से रणनीतिक संबंध बनाने की रूसी इच्छा को सीमित करने में मदद मिलेगी। नई दिल्ली का लक्ष्य अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों की मास्को से निकटता को कम करना है।

रूस पर अमरीकी प्रतिबंधों से भारत की रक्षा खरीद पर गंभीर असर पड़ सकता है। भारत की रक्षा आपूर्ति में रूसी उपकरणों की हिस्सेदारी 60त्न से अधिक है। रूस के साथ कई उच्च तकनीकी क्षेत्रों में भी सहयोग है, जिसमें परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष, ब्रह्मोस मिसाइल और परमाणु पनडुब्बी जैसी कुछ हथियार प्रणालियों का संयुक्त उत्पादन भी शामिल है। भारतीय सेना के 3,000 से अधिक मुख्य युद्धक टैंकों में से 90 फीसदी से अधिक रूसी टी-72 और टी-90 हैं। इसके अलावा 464 रूसी टी-90 एमएस टैंकों की खरीद के लिए भी बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है। वायुसेना के लड़ाकू विमानों जैसे 272 सुखोई-30 एमकेआइ, मिग-29 व मिग-31 और नौसेना के एयरक्राफ्ट करियर में रूस का बड़ा हिस्सा है। इसके अलावा रूसी पनडुब्बियों के रखरखाव, उपकरणों के लिए भी सहायता की जरूरत होती है।

यूक्रेन युद्ध से भारत में विकास-मुद्रास्फीति का संतुलन बिगड़ा है। इससे कच्चे तेल की कीमतें बढ़ीं जो आपूर्ति पक्ष की रुकावटों की वजह बनी। खाद्य व ऊर्जा सुरक्षा के हालात भी बिगड़ रहे हैं और जलवायु परिवर्तन में भी तेजी आ रही है। ऐसे में जी-20 व एससीओ की अध्यक्षता के साथ भारत का मानना है कि वह पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण के बीच पुल का काम कर सकता है। भारत बहुध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को प्राथमिकता देता है। वैश्विक सहयोग को तेजी से बढ़ावा देने के साथ ही भारत का रुख किसी के भी साथ स्थायी गठबंधन से बचते हुए अपने हितों को सुरक्षित रखना है।