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ऑस्कर के लिए फिल्में भेजने की प्रक्रिया में सुधार आवश्यक

अब अपनी स्वतंत्र भागीदारी से भारतीय फिल्में ऑस्कर की दौड़ में आगे आ रही हैं। यह कहा जा सकता है कि दावेदारी मजबूत हो तो अब ऑस्कर उतनी दूर भी नहीं। जरूरत इस बात की है कि अपनी चयन प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए। बहरहाल खुश हो सकते हैं,ऑस्कर हासिल कर दुनिया के सामने भारतीय सिनेमा ने अपना कद तो दिखाया।

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Patrika Desk

Mar 19, 2023

ऑस्कर के लिए फिल्में भेजने की प्रक्रिया में सुधार आवश्यक

ऑस्कर के लिए फिल्में भेजने की प्रक्रिया में सुधार आवश्यक

विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक

अब जब ऑस्कर की घोषणा को कुछ ही दिन बीते हैं , यह सही समय है थोड़े से सच का सामना करने का। यह सही बात है और खुशी की भी बात है कि इस वर्ष पहली बार दो भारतीय फिल्मों को ऑस्कर से सम्मानित होने का अवसर मिला। लेकिन, यह भी सच है कि ये दोनों ही फिल्में भारत की ऑफिशियल एंट्री नहीं थी। इस वर्ष भारत की ऑफिशियल एंट्री के रूप में पैन नलिन की गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो ' भेजी गई थी, जो विदेशी भाषा श्रेणी के लिए अंतिम पांच में भी जगह नहीं बना सकी। अपने दोनों हाथों से उल्टी तलवार पकड़े फिल्म की रील पर खड़े 'नाइटÓ की साढ़े तेरह इंच ऊंची और साढ़े आठ पौंड वजनी ऑस्कर ट्रॉफी 1957 में जो एक वोट से फिसली, वह आज तक हम नहीं थाम सके। ऑस्कर के निर्णायकों को न तो 'देवदासÓ की चकाचौंध कभी विस्मित कर पाई, न 'श्वासÓ की संवेदनशीलता, न 'रंग दे बसंतीÓ की विचारधारा और न ही 'पीपली लाइवÓ की वास्तविकता।
अमरीका की अकादमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आट्र्स एण्ड साइंस द्वारा सर्वोत्तम विदेशी फिल्म श्रेणी के पुरस्कार की शुरुआत सन 1956 से हुई। 1957 में भारत की ऑफिशियल एंट्री के रूप में गई महबूब खान की 'मदर इंडियाÓ अंतिम पांच तक पहुंची ही नहीं थी, बल्कि ऑस्कर लाने वाली पहली फिल्म बनने से मात्र एक वोट से पिछड़ गई थी। उसे चुनौती मिल रही थी फेडरिको फेलिनी की 'नाइट्स ऑफ कैबिरियाÓ से। ऑस्कर पुरस्कार के निर्णायकों के बीच तीन बार टाई होने के बाद फैसला एक वोट से फेलिनी के पक्ष में चला गया था। 'मदर इंडिया ' के 31 साल बाद अंतिम राउंड तक पहुंचने वाली दूसरी फिल्म थी 'सलाम बाम्बे '। और इसके चौदह वर्ष बाद 'लगान ' के रूप में तीसरी भागीदारी अंतिम पांच तक पहुंच सकी थी। वाकई 59 सालों में मात्र तीन फिल्मों का अंतिम राउंड तक पहुंचना चिंतित करता है। कहीं न कहीं तो गड़बड़ी जरूर है।
ऑस्कर में भारत की ओर से ऑफिशियल एंट्री भेजने के लिए 'फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ' को अधिकृत किया गया है। इसमें विभिन्न राज्यों के फिल्म निर्माताओं और वितरकों के संगठन शामिल हैं। जाहिर है उनके अपने अपने हित भी होते हैं। भारतीय फिल्मों की चयन प्रक्रिया कितनी संदेहास्पद है, इसे उनकी प्रस्तावित सूची से ही समझा जा सकता है, जिसमें 'पहेली ', 'एकलव्य ','गली बाय ', 'कूझंगल ' जैसी सामान्य फिल्में शामिल रही हैं। जबकि 2011 में 58वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की जूरी ने स्पष्ट मंतव्य दिया था कि राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए चयनित सर्वश्रेष्ठ फिल्म को ऑफिशियल एंंट्री के रूप में भेजा जाना चाहिए, लेकिन इस मंतव्य पर गौर ही नहीं किया गया। आश्चर्य नहीं कि 2011 के बाद ऑस्कर के लिए भेजी गई फिल्म में मात्र एक फिल्म ऐसी थी जिसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। यह भी सच है कि भारतीय सिनेमा के लिए मुश्किल तो ऑस्कर की भी चयन प्रक्रिया में होती रही है। लेकिन, अब जब अपनी स्वतंत्र भागीदारी से भारतीय फिल्में ऑस्कर की दौड़ में आगे आ रही हैं। यह कहा जा सकता है कि दावेदारी मजबूत हो तो अब ऑस्कर उतनी दूर भी नहीं। जरूरत इस बात की है कि अपनी चयन प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए। बहरहाल खुश हो सकते हैं,ऑस्कर हासिल कर दुनिया के सामने भारतीय सिनेमा ने अपना कद तो दिखाया।