
देेश के तीन प्रमुख हिन्दी भाषी प्रदेश राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकारों का दो साल का कार्यकाल पूरा हो गया है। सत्ता संभालते ही भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस का दावा सब करते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार निवारण के मामले में 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा कीÓ वाली उक्ति सटीक बैठती है। श्रद्धेय कुलिश जी ने करीब तीस बरस पहले अपने आलेख में भ्रष्टाचार की रोकथाम को लेकर बने सरकारी महकमों की भूमिका पर सवाल उठाए थे। उन्होंने साफ लिखा था कि अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि नौकरशाही का तंत्र भ्रष्टाचारियों का सबसे बड़ा आसरा है। भ्रष्टाचार के निवारण के लिए सदाचार और संकल्प के सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं है। आलेख के प्रमुख अंश:
भ्रष्टाचार दूर करने की घोषणाएं बढ़-चढ़कर की जाती हैं। कितने ही मंत्री और अफसर हैं जिनकी ईमानदारी पर किसी को भरोसा नहीं है। परन्तु मजाल क्या किसी से सवाल किया जाए। मुख्यमंत्री से बात करो तो वे यह मानकर संतुष्ट हैं कि अन्य राज्यों की तुलना में कुछ भी नहीं है। नौकरशाही का इतना बड़ा जाल तंत्र में फैला हुआ है कि उसमें कोई शिकायतकर्ता फंस गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। कई लोग तो शिकायत भी नहीं करना चाहते। जैसे-तैसे, ले-देकर अपना काम निकलवा लेते हैं। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए एक महकमा भ्रष्टाचार निरोध का है, एक सीबीआइ है, एक लोकपाल है, विभागीय जांच विभाग है और कितनी ही कमेटियां जांच पड़ताल में लगी हैं। इस भारी-भरकम तंत्र पर राज-कोष का कितना खर्च होता है, यह मालूम नहीं। मालूम होना मुश्किल भी नहीं, परन्तु आंकड़े जोडऩा मेरा काम नहीं है। करोड़ों रुपए के खर्च से चलने वाले इस लवाजमे का परिणाम पूछने का हम करदाता मतदाताओं को अधिकार है। अनुभव तो यही बताता है कि नौकरशाही का तंत्र भ्रष्टाचारियों का सबसे बड़ा आसरा है। सबसे ज्यादा जटिल है, अदालती दांवपेंच, जहां न्याय मांगने वाला शिवजी की स्तुतियां ही करता रहता है। भले ही उमर बीत जाए।
भ्रष्टाचार के निवारण के लिए सदाचार और संकल्प के सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं है। नौकरशाही का तो स्वभाव है कि यदि प्रतापी शासक होता है तो उसका हुक्म बजाती है वरना वह शासक को किसी न किसी दाव में उलझाए रखती है। लोकतंत्र में शासक भी मियादी यानी थोड़े दिन के मेहमान होते हैंं। भ्रष्टाचार निवारण के बारे में नौकरशाही की कारगुजारियों के बारे में एक चुटकुला मशहूर है। एक ठाकुर साहब को अपनी गोशाला से यह शिकायत थी कि दूध में पानी मिला होता है। हुजूरियों की सलाह पर निगरानी के लिए एक हाकम कायम कर दिया गया। नए हाकम साहब को भी अपना हिस्सा चाहिए था तो दूध में ज्यादा पानी मिलाना शुरू हो गया। फिर शिकायतें हुईं तो हाकम पर हाकम कायम करने का सिलसिला जारी रहा। एक दिन ऐसा आया जब दूध के बजाय पानी ही रह गया। ठाकुर साहब को समझा दिया गया कि दूध को साफ करके अश्वेत बना दिया गया है। पानी के रूप में जो पदार्थ है वह न सफेद है न काला। यह केवल उदाहरण है जिससे वास्तविकता सामने नहीं आती। भ्रष्टाचार की एक अन्तहीन कहानी है जो दर्दनाक भी है।
गिरावट ऊपर से
यह देखकर दर्द होता है और शर्म भी आती है कि जिन लोगों को नीतियां बनाने और अमल में लाने के लिए चुना जाता है उनका पूरा नहीं तो ज्यादातर समय तबादले करने या रुकवाने में जाता है। और शेष समय तथाकथित 'जनसम्पर्क' में। तहसील से लेकर सचिवालय तक कामकाजी आदमी फैसलों के इंतजार में चक्कर लगाते रहते हैं लेकिन फाइल एक मेज से दूसरी मेज तक पहुंचने का नाम ही नहीं लेती। जिस पर भी दफ्तर वालों की सारी ऊर्जा इस बात में खर्च हो जाती है कि काम में किस तरह से फच्चर फंसाया जा सकता है। प्रशासनिक सुधार आयोग में बड़े धुरंधर पंडित बैठे हुए हैं और बरसों से रिपोर्ट पर रिपोर्ट पेश करते आ रहे हैं लेकिन देश का यह साम्राज्यशाही प्रशासन टस से मस नहीं होना चाहता। वह भ्रष्ट भी है और निकम्मा भी। अनुभवी लोगों का तो यहां तक मानना है कि प्रशासन की कारगुजारियों में गिरावट ऊपर से आई है।( कुलिश जी के अग्रलेखों आधारित पुस्तक 'हस्ताक्षर'से )
ब्यौहार
लेण-देण सूँ चल रह्यो,
दुनिया को ब्यौहार।
कैय्याँ चाले बिन भर्याँ,
कुदरत को भंडार।
भूत, पलीत बण्या फिरे,
कर नेतां को भेस।
लूट, मार, छल, छन्द सूँ,
सड़ा रह्या छै देस।।
'पोलमपोल' से
Published on:
18 Dec 2025 03:51 pm
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