नीति-नवाचार: पहले रूस-यूक्रेन और अब इजरायल-हमास युद्ध के चलते प्रभावित हुआ है रक्षा आयात
वरुण गांधी
भाजपा सांसद और ‘द इंडियन मेट्रोपोलिस’ पुस्तक के लेखक
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स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार, 2016 और 2020 के बीच रूस और इजरायल की भारत के रक्षा आयात में 62 प्रतिशत हिस्सेदारी रही है। रक्षा स्वदेशीकरण को लेकर चर्चा के बीच ऐसे आयातों की अहमियत बरकरार है। लेकिन एक ओर यूक्रेन में युद्ध ने रूस से सैन्य प्लेटफार्म डिलीवरी को प्रभावित किया है तो दूसरी ओर इजरायल-हमास युद्ध के जारी रहने से स्वाभाविक तौर पर इजरायल से भारत को हथियारों की आपूर्ति प्रभावित होगी।
जाहिर है इन परिस्थितियों में निरंतर रक्षा आयात पर भरोसा करना बेमानी है और रक्षा स्वदेशीकरण ही आगे बढ़ने का रास्ता है। इसके लिए आधुनिकीकरण की दिशा में भारत के रक्षा खर्च में उल्लेखनीय वृद्धि की जरूरत है। भारत का रक्षा बजट अब रूस के बराबर है। पर अधिकांश राशि वेतन/पेंशन के लिए आवंटित की जाती है। पूंजीगत व्यय के लिए सीमित प्रावधान के साथ वित्त वर्ष 2024 में रक्षा मंत्रालय का 5.94 लाख करोड़ का बजट है। इसमें सैन्य आधुनिकीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास से संबंधित पूंजी परिव्यय के लिए महज 1.63 लाख करोड़ रुपए रखे गए हैं। 2008-2012 के बीच रक्षा बजट का पूंजीगत व्यय खर्च औसतन 32% रहा। यह बाद में 2013-2017 के बीच घटकर 27% और 2018-2022 के बीच महज 23% रह गया। इस तरह इस दौरान अनुसंधान और विकास कार्य पर खर्च में गिरावट आई।
रक्षा खरीद में बदलाव समय की मांग है। गौरतलब है कि रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया (2020) में 681 पृष्ठ हैं। इसमें कहीं दो राय नहीं कि भारत की रक्षा खरीद प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ है। 2002 से रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया में आठ संशोधन हुए हैं। पर अब भी यह प्रक्रिया जटिल ही है। वर्तमान में रक्षा अधिग्रहणों को 12 चरण की जटिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसमें वैश्विक व घरेलू आरएफआइ (रिक्वेस्ट फॉर इन्फॉर्मेशन) जारी होने और इसके बाद विस्तृत आवश्यकताओं व विशिष्टताओं को परिभाषित करने से लेकर रक्षा मंत्रालय और सुरक्षा पर कैबिनेट समिति की हरी झंडी मिलने तक कई प्रक्रियागत बाधाएं हैं। आदर्श स्थिति में इस प्रक्रिया में 74-106 हफ्ते लगने चाहिए। अलबत्ता ऐसी समय-सीमा का पालन शायद ही कभी किया जाता है। आमतौर पर सैन्य अधिग्रहण में एक दशक से अधिक का समय लग सकता है। मसलन, 56 सी-295 मध्यम परिवहन विमान की खरीद मामले को हम देख सकते हैं।
स्थिति में सुधार के लिए 2015 में मनोहर पर्रिकर द्वारा गठित एक समिति द्वारा एक रक्षा क्षमता अधिग्रहण संगठन का प्रस्ताव रखा गया था। भारत की रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया को टर्बो-चार्ज करने के लिए ऐसे संगठन की स्थापना करने का समय अब आ गया है। यह दरकार तब और तार्किक हो जाती है जब हम देखते हैं कि मौजूदा बंदूकों के बदलाव में छह प्रस्ताव के साथ दो दशक से ज्यादा का समय लगा। समिति के माध्यम से खरीदारी के दिन अब लद गए हैं।
स्वदेशीकरण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। हाल ही में रक्षा मंत्री द्वारा जारी सकारात्मक स्वदेशीकरण सूची में 98 हथियारों के आयात पर प्रतिबंध लगाने का कदम स्वागतयोग्य है। यह पहली सकारात्मक स्वदेशीकरण सूची में 2,500 वस्तुओं के साथ 1,238 वस्तुओं वाली तीन अन्य सूचियों के अतिरिक्त है।
रक्षा मंत्रालय को अपने पिछले अनुभवों से सबक लेना चाहिए। सतह से हवा में मार करने वाली आकाश मिसाइल प्रणाली के विकास को ही लें। इसे 2008 में सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से विकसित किया गया था और इसमें रक्षा मंत्रालय द्वारा 3,000 विक्रेताओं को 11,800 भागों की आपूर्ति के लिए प्रमाणित किया गया था। बार-बार यह प्रवृत्ति दोहराई जाती है। तेजस को अपनी पहली उड़ान के 19 साल बाद पहला ऑर्डर मिला। आरएफपी (रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल) जारी होने के बाद डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियों के उत्पादन में 19 साल लग गए। सौभाग्य से भारतीय नौसेना रणनीतिक जरूरतों को पूरा करने और कुशल कार्यबल का उपयोग और विस्तार जारी रखने के लिए एक और विमान वाहक पर जोर दे रही है।
भारत के निजी क्षेत्र को रक्षा क्षेत्र में उत्साह के साथ प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। रक्षा निर्माताओं के लिए विक्रेता पंजीकरण और खुली निविदा और दीर्घकालिक अनुबंधों के मामले में सुधार और तेजी की जरूरत है। भारत के निजी क्षेत्र को रक्षा विनिर्माण में गुणवत्ता संबंधी मुद्दों को हल करने के लिए आगे आना चाहिए। तकनीकी खामियों, घटकों की विफलता व सौदे के बाद सीमित परिचालन/सेवा सहायता के कारण कम प्रौद्योगिकी वाले रक्षा उत्पाद बाधित हो रहे हैं।
स्वदेशीकरण के साथ रक्षा उत्पादन और निर्यात संवर्धन नीति 2020 की बात करें तो 2025 तक रक्षा उद्योग के 25 बिलियन डॉलर का होने की बात कही गई है। इससे सालाना पांच बिलियन डॉलर के निर्यात का आकलन किया गया। अधिक निर्यात करने से स्केल और क्वालिटी सुधार में मदद मिल सकती है। तथ्य यह है कि भारत ने वित्त वर्ष 2014 से अब तक 6,052 करोड़ रुपए मूल्य के रक्षा उपकरण निर्यात किए हैं। इसके बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। केलकर समिति (2005) की सिफारिशों से रक्षा खरीद प्रक्रियाओं में सुधार हुआ है, पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
रक्षा निर्यात में वृद्धि के लिहाज से फिलीपींस को ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल की बैटरियों की हालिया बिक्री एक आशाजनक संकेत हो सकती है। इस क्रम में अपने निजी क्षेत्र को राजनयिक प्रयासों व सब्सिडी के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय बाजारों का पता लगाने और खरीदारों के साथ साझेदारी विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत होगी। भारत ज्यों-ज्यों अगले दशक में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर होगा, उसे एक मजबूत मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स की आवश्यकता होगी, जो बड़े पैमाने पर और अपेक्षित गुणवत्ता पर आधारित रक्षा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो। महान शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा बढ़े, रक्षा आयात में बड़ी गिरावट हो, इसके साथ यही वक्त है जबकि राष्ट्रीय रक्षा सामथ्र्य में भारत मजबूत हो।