
- के.एस. तोमर, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की शानदार जीत ने न सिर्फ परिणामों के दिन उत्साह का माहौल बनाया, बल्कि पार्टी की उस मनोवैज्ञानिक धारणा को भी मजबूत किया कि वह जमे हुए क्षेत्रीय गठबंधनों को तोड़ सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में संबोधन में इस भावना को रेखांकित करते हुए कहा कि बिहार का जनादेश पूर्व में राजनीतिक हवाओं के बदलने का संकेत है और अब अगला कदम बंगाल की ओर है। बिहार और बंगाल को जोड़ते हुए उन्होंने साफ कर दिया कि 2026 में ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल करना भाजपा का अगला बड़ा राजनीतिक लक्ष्य है। यह घोषणा उस समय आई जब भाजपा ने दिल्ली में भी २७ साल बाद अप्रत्याशित वापसी की और 70 में से 48 सीटें जीतकर क्षेत्रीय दल के प्रभुत्व को तोडऩे का नया मॉडल पेश किया। दिल्ली की जीत ने संगठनात्मक मनोबल बढ़ाया और बिहार की विजय ने पूर्वी भारत में गति पैदा की।
इसी संयुक्त ऊर्जा ने भाजपा को बंगाल में अब तक की सबसे संरचित और आक्रामक चुनौती पेश करने के लिए प्रेरित किया है। बंगाल में भाजपा की बढ़ती महत्वाकांक्षा कोई अचानक उठा राजनीतिक कदम नहीं है। यह दशकों से संघ परिवार द्वारा बंगाल के ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में की गई शांत, सतत और गहरी संगठनात्मक मेहनत का परिणाम है। हिंसा, प्रताडऩा और प्रशासनिक प्रतिरोध के बावजूद कार्यकर्ताओं ने कभी अपना काम नहीं छोड़ा। यही समर्पित कैडर आज भाजपा के आत्मविश्वास का मुख्य आधार है। नई रणनीति को पार्टी की सबसे निर्णायक सुधारात्मक पहल माना जा रहा है। हर जिले से 2-3 ऐसे नेताओं की पहचान की जा रही है, जिन्होंने पार्टी के साथ वर्षों तक कठिन परिस्थितियों में निष्ठा बनाए रखी। इन्हीं में से ज्यादातर उम्मीदवार 2026 के लिए चुने जाएंगे। जिला अध्यक्षों को चुनाव लडऩे से रोक दिया गया है ताकि संगठनात्मक प्राथमिकताएं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पर भारी रहें। 2011 में जब वाम मोर्चा का 34 वर्षीय शासन ढहा, तो बंगाल के राजनीतिक ढांचे में एक बड़ा शून्य पैदा हुआ।
टीएमसी ने हजारों वाम कार्यकर्ताओं को अपने में शामिल किया, जिन्होंने बूथ प्रबंधन का गहरा अनुभव साथ लाकर ममता बनर्जी को ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत संगठन खड़ा करने में मदद की, पर यह उधार लिया हुआ कैडर अपनी सीमाएं भी साथ लाया- वैचारिक अस्पष्टता, गुटबाजी और स्थानीय संरक्षण राजनीति पर निर्भरता। सत्ता में बने रहने में यह संरचना सहायक रही, लेकिन भ्रष्टाचार, कट मनी और योजनाओं में गड़बडिय़ों जैसे आरोपों ने अब कई जिलों में इसकी पकड़ ढीली की है। भाजपा का मानना है कि इन्हीं दरारों ने उसके लिए नए अवसर खोले हैं। 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 77 सीटें जीतकर बंगाल की राजनीति में अभूतपूर्व प्रवेश किया और सुवेंदु अधिकारी ने नंदीग्राम में ममता को हराकर पार्टी को मनोवैज्ञानिक बढ़त दिलाई, पर अत्यधिक दलबदलुओं पर निर्भरता ने भारी नुकसान किया। बंगाल की राजनीति में अब यह बड़ा सवाल है कि भाजपा की सख्त चयन नीति पार्टी को मजबूत करेगी या अंदर ही अंदर असंतोष बढ़ाएगी। सकारात्मक पक्ष यह है कि दीर्घकालिक कैडर-आधारित उम्मीदवार बूथ स्तर पर प्रदर्शन को बहुत सुधार सकते हैं, जो 2021 में भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी थी।
स्थानीय रूप से सम्मानित, संगठन से जुड़े और विचारधारा से प्रेरित उम्मीदवार स्वयंसेवकों को अधिक प्रभावी ढंग से सक्रिय कर सकते हैं। यदि भाजपा निष्ठा और जनस्वीकार्यता में संतुलन बना लेती है, तो यह चयन रणनीति 2026 में उसकी सबसे बड़ी ताकत बन सकती है। बिहार की ऊर्जा, दिल्ली की वापसी, संगठनात्मक सुधार, कुछ जिलों में एंटी-इनकम्बेंसी और सीमित रूप से हिंदू एकजुटता- इन सभी ने भाजपा को अभूतपूर्व आत्मविश्वास दिया है। ममता बनर्जी की पकड़ आज भी बंगाल में बेहद मजबूत है। उनकी कल्याण योजनाओं की संरचना, महिलाओं से भावनात्मक जुड़ाव, सड़क-स्तरीय संघर्ष क्षमता और प्रशासन पर पकड़ उन्हें बढ़त देती है। वे भाजपा के उभार का मुकाबला बंगाली अस्मिता को तेज करके, योजनाओं की डिलीवरी मजबूत कर और अल्पसंख्यक वोटों के व्यापक एकीकरण से करेंगी। उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता राज्य की राजनीति में अब भी अनुपम है। 2026 का चुनाव यह तय करेगा कि भाजपा का कैडर-प्रधान मॉडल ममता बनर्जी की व्यक्तित्व-प्रधान राजनीति को मात दे सकेगा या नहीं। आने वाली लड़ाई यह तय करेगी कि पूर्वी भारत का भविष्य केसरिया अनुशासन की ओर झुकेगा या तृणमूल के जमीनी नेटवर्क की ओर।
Updated on:
17 Dec 2025 01:10 pm
Published on:
17 Dec 2025 01:09 pm
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