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संपादकीय: जहरीले धुएं की जड़ पर प्रहार से निकलेगा समाधान

सवाल यही है कि कब सरकारें प्रदूषण को मौसमी समस्या नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपातकाल की तरह लेंगी? कब नीति-स्तर पर सख्त और ईमानदार फैसले होंगे?

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कोहरे में यातायात सुचारू रखने के नाम पर करोड़ों रुपए पिछले वर्षों में खर्च किए गए हैं। हाईटेक लाइटें, सेंसर, एडवाइजरी सिस्टम और न जाने क्या-क्या बचाव उपायों के तहत अपनाए भी गए हैं, लेकिन जब जहरीले धुएं से दृश्यता ही खत्म हो जाए, तो तकनीक भी असहाय हो जाती है। यही कारण है कि समस्या के मूल पर चोट किए बिना ये सारे उपाय ज्यादा कारगर साबित नहीं हो पा रहे।
हर बार सर्दी आते ही कोहरे के कारण यातायात बाधित होने की बातें होती हैं तो हम इसे मौसम की मार समझ बैठते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि यह कोहरा कम और प्रदूषण से बना स्मॉग ज्यादा होता है। दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ही नहीं, बल्कि लखनऊ तक में दमघोंटू प्रदूषण से सांस लेना तक मुश्किल होने लगा है। इतना ही नहीं, मार्ग में दृश्यता शून्य के करीब पहुंच जाती है, जो सड़क हादसों की वजह भी बन रही है। रेल व हवाई यातायात भी बाधित होता है। समय के साथ-साथ व्यक्ति प्रदूषणयुक्त माहौल में स्वास्थ्य भी गंवाता है। सवाल यह है कि क्या इतना सब किसी प्राकृतिक आपदा का नतीजा है या फिर हमारी सामूहिक लापरवाही का परिणाम? आंकड़े डराने वाले हैं। कई शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआइ 400 के पार पहुंच चुका है, जिसे 'अतिगंभीर' श्रेणी कहना ही सही होगा। यह वही स्तर है, जहां स्वस्थ व्यक्ति को भी सांस लेने में दिक्कत होने लगती है।


सरकारें चेतावनी जारी करती हैं, स्कूल बंद होते हैं, निर्माण कार्य रोके जाते हैं, परिवहन ठप होता है और कुछ दिनों बाद हालात सामान्य होने का दावा कर समस्या की असल जड़ को भुला दिया जाता है। समस्या यानी प्रदूषण के वाहक वहीं के वहीं। प्रदूषण के कारण गिनाना कोई मुश्किल काम नहीं है। पराली जलाना, पुराने और अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहन, अनियंत्रित औद्योगिक उत्सर्जन, निर्माण स्थलों से उड़ती धूल और शहरों की बिगड़ती हरियाली- ये सब वर्षों से पहचाने जाते रहे हैं। पराली जलाने पर हर साल प्रतिबंध लगता है। किसानों को वैकल्पिक तकनीक और आर्थिक मदद देने के बजाय दंड का डर दिखाया जाता है। शहरों में हालात कुछ बेहतर नहीं हैं। सड़कों पर आज भी ऐसे वाहन दौड़ रहे हैं, जो कब के रिटायर्ड हो जाने चाहिए थे। उद्योगों की बात करें तो नियमों को धता बताने वाले सैकड़ों कारखाने खुलेआम जहर उगल रहे हैं। जल प्रदूषण की तस्वीर भी कुछ अलग नहीं है। दिल्ली में यमुना नदी का हाल किसी से छिपा नहीं।


सवाल यही है कि कब सरकारें प्रदूषण को मौसमी समस्या नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपातकाल की तरह लेंगी? कब नीति-स्तर पर सख्त और ईमानदार फैसले होंगे? समाधान मौजूद हैं- पराली प्रबंधन, सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा, पुराने वाहनों पर रोक, उद्योगों की रियल-टाइम निगरानी तथा शहरों में हरित क्षेत्र बढ़ाना। इन्हीं समाधानों से राह निकल सकती है।