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एकता में शक्ति का मंत्र भूल रहा विपक्ष, निशाने पर कांग्रेस

राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषकहरियाणा और महाराष्ट्र की हार के झटके से मुखर अंसतोष बताता है कि विपक्षी दल अपना ही सूत्र वाक्य भूल रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने मौका मिलने पर ‘इंडिया’ के नेतृत्व की इच्छा जतायी है तो महाराष्ट्र में सपा ने महायुति छोडऩे का ऐलान किया […]

जयपुरDec 09, 2024 / 10:23 pm

Sanjeev Mathur


राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
हरियाणा और महाराष्ट्र की हार के झटके से मुखर अंसतोष बताता है कि विपक्षी दल अपना ही सूत्र वाक्य भूल रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने मौका मिलने पर ‘इंडिया’ के नेतृत्व की इच्छा जतायी है तो महाराष्ट्र में सपा ने महायुति छोडऩे का ऐलान किया है। एक इंटरव्यू में ‘इंडिया’ गठबंधन की दशा-दिशा पर पूछे गए सवाल के जवाब में ममता ने जो टिप्पणियां की हैं, वे निश्चय ही कांग्रेस को अहसज करेंगी, जबकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना के एक विज्ञापन से खफा हो कर सपा नेता अबू आजमी ने महायुति (जो ‘इंडिया’ का ही महाराष्ट्र संस्करण है) छोडऩे का ऐलान किया है।
पिछले साल 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में मोदी सरकार और भाजपा के विरुद्ध विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ बनाते समय मंच पर बैनर लगा था- ‘यूनाइटेड वी स्टैंड’। यह अंग्रेजी का पुराना सूत्र वाक्य है, जिसका भावात्मक संदेश है कि एकता में ही शक्ति है। सूत्र वाक्य का दूसरा हिस्सा है- ‘डिवाइडेड वी फॉल’ यानी आपस में बंटते ही हम बिखर जाते हैं। बेशक चंद महीने बाद ही ‘इंडिया’ से उसके ‘सूत्रधार’ नीतीश कुमार और फिर जयंत चौधरी भी पाला बदल गए। फिर भी एकता के बल पर ही विपक्ष, लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेलेदम बहुमत से वंचित कर पाया। फिर क्यों छह महीने के अंदर ही असंतोष मुखर होने लगा है? इस बीच हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपानीत राजग और ‘इंडिया’ में सत्ता का मुकाबला बराबर रहा। हरियाणा और महाराष्ट्र की सत्ता राजग को मिली तो जम्मू-कश्मीर और झारखंड में जनादेश ‘इंडिया’ को मिला। हां, गिनती के बजाय गहराई से समझें तो निश्चय ही राजग ने बड़ा हाथ मारा, जबकि ‘इंडिया’ की उम्मीदों को जबर्दस्त झटका लगा। हरियाणा और महाराष्ट्र आर्थिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण राज्य हैं।
लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन मानी जाती है, लेकिन महंगी चुनावी राजनीति में आर्थिक शक्ति का महत्व भी जगजाहिर है। दोनों राज्यों में हार ‘इंडिया’ के लिए बड़ा झटका इसलिए भी है, क्योंकि उसे जीत का विश्वास था। लोकसभा चुनाव में हरियाणा में टक्कर बराबरी की रही थी, तो महाराष्ट्र में ‘इंडिया’ ने राजग को 48 में से मात्र 17 सीटों पर समेट दिया, लेकिन विधानसभा चुनाव परिणाम चौंकाने वाले आए। हार-जीत के बाद अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन हताशा स्वाभाविक है। बेशक धारा-370 की समाप्ति के बाद तमाम माहौल बनाने के बावजूद जम्मू-कश्मीर में भाजपा का सरकार न बना पाना भी निराशाजनक रहा। झारखंड में हरसंभव कवायद के बावजूद सत्ता की दहलीज के आसपास न पहुंच पाना भी भाजपा के लिए संतोष की बात नहीं। फिर भी हरियाणा और महाराष्ट्र की जीत के जश्न में भाजपा ने हार की निराशा को बखूबी छिपा लिया, जबकि हताश ‘इंडिया’ आपस में ही तलवार भांजने में जुट गया है। ‘इंडिया’ में उजागर होने वाली ये ‘गांठें’ नई नहीं हैं। परस्पर राजनीतिक हितों के टकराव से बनीं ये ‘गांठें’ पुरानी हैं, जिन्हें बड़ी राजनीतिक मजबूरी के ‘बंधन’ से छिपाने की कोशिश की जाती है। ‘इंडिया’ बनने के बाद भी कांग्रेस ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में सहयोगी दलों को भाव नहीं दिया।
तीनों राज्यों में कांग्रेस की हार के कारण कई रहे होंगे, लेकिन मित्र दलों द्वारा उतारे गए उम्मीदवारों ने भाजपा विरोधी मतों में ही सेंध लगाई। ठोकर खा कर कांग्रेस संभली भी। जिस मध्य प्रदेश में अखिलेश यादव की सपा को एक-दो विधानसभा सीट के लायक नहीं समझा गया, लोकसभा चुनाव में खजुराहो सीट दे दी गई। अरविंद केजरीवाल की आप को भी हरियाणा, गुजरात और गोवा में सीटें मिलीं। राजस्थान में भी विपक्ष के बेहतर प्रदर्शन का कारण गठबंधन रहा। हरियाणा में पांच लोकसभा सीटें जीतने के बाद फिर कांग्रेस, खासकर प्रदेश नेतृत्व का अहंकार जागा और ‘इंडिया’ के घटक दलों को एक भी सीट नहीं दी। हरियाणा में हार के बाद से ही कांग्रेस पर कटाक्ष शुरू हो गए थे। बेशक महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन महा विकास अघाड़ी में शामिल तीनों बड़े दलों कांग्रेस, शरद पवार की राकांपा और उद्धव ठाकरे की शिवसेना की समान रूप से दुर्गति हुई है, लेकिन ‘इंडिया’ में निशाने पर कांग्रेस ज्यादा नजर आ रही है। गठबंधन की तल्खी अब संसद में भी दिख रही है।

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