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नाद सौंदर्य के स्वर-सिद्ध गायक पंडित कुमार गंधर्व

कुमार गंधर्व का गान लोकोन्मुखी है। लोक का उजास वहां है। स्वयं वह कहते भी थे, सारा शास्त्रीय संगीत 'धुन उगम' माने लोक संगीत से उपजा है। मीरा, सूरदास के पद हों, ऋतु संगीत हो, ठुमरी, ठप्पा, तराना, होरी या फिर मालवा का लोक-आलोक या फिर उनकी खुद की बंदिशें और स्वयं उनके बनाए रागों में प्रकृति की धुनें हममें जैसे बसती हैं।

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Patrika Desk

Apr 09, 2023

नाद सौंदर्य के स्वर-सिद्ध गायक पंडित कुमार गंधर्व

नाद सौंदर्य के स्वर-सिद्ध गायक पंडित कुमार गंधर्व


डॉ. राजेश कुमार व्यास
कला समीक्षक

पंडित कुमार गंधर्व की जन्मशती शुरू हो रही है। मुम्बई में कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान, देवास और नेशनल सेंटर्स फॉर द परफॉर्मिंग आट्र्स द्वारा इसकी शुरुआत दो दिवसीय संगीत महोत्सव से शनिवार को ही हो रही है। पंडित कुमार गंधर्व शास्त्रीय संगीत के क्रांतिकारी गायक थे। किसी घराने विशेष से अपनी पहचान न बनाकर उन्होंने अपनी स्वतंत्र शैली, विचार-उजास की दृश्य गायकी ईजाद की। परम्परागत रूढिय़ों को तोड़ते हुए हुए उन्होंने सदा संगीत में नया रचा।
मुझे लगता है कि नाद सौंदर्य के भी वह विरल अन्वेषक थे। ऐसे जिन्होंने गान में शब्दों को जीते हुए अर्थ छटाओं की गगन-घटा लहराई। सुनेंगे तो लगेगा वह स्वरों को फेंकते, उन्हें बिखराते, औचक ऊंचा करते, विराम देते और फिर अंतराल के मौन को भी जैसे व्याख्यायित करते थे। मिलन-विरह और भांत-भांत की जीवन की अनुभूतियों में उनका गायन सुना ही नहीं, देखा भी जा सकता है। कबीर के निर्गुण को जो शास्त्रीय ओज पंडित कुमार गंधर्व ने दिया, किसी दूसरे के कहां बस की बात है। 'उड़ जाएगा हंस अकेला...,' में 'गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेले की करनी चेला...' स्वर-निभाव पर ही गौर करें, लगेगा जीवन का मर्म जैसे हमें कोई समझा रहा है। ऐसे ही 'अवधूता, गगन घटा गहराई रे...Ó और 'हिरना समझ-बूझ चरना' जैसे गाए निर्गुण में स्वरों का अनूठा फक्कड़पन है। सुनते ही मन वैरागी सा हो उठता है। संसार का सार-असार जैसे समझ आने लगता है।
कुमार गंधर्व का गान लोकोन्मुखी है। लोक का उजास वहां है। स्वयं वह कहते भी थे, सारा शास्त्रीय संगीत 'धुन उगम' माने लोक संगीत से उपजा है। मीरा, सूरदास के पद हों, ऋतु संगीत हो, ठुमरी, ठप्पा, तराना, होरी या फिर मालवा का लोक-आलोक या फिर उनकी खुद की बंदिशें और स्वयं उनके बनाए रागों में प्रकृति की धुनें हममें जैसे बसती हैं। युवाओं के लिए उनका आत्मविश्वास कम प्रेरणास्पद नहीं है। यह उनकी गहन जीवटता ही थी कि क्षय रोग की वजह से एक फेफड़ा काम का नहीं होने के बावजूद उन्होंने दमदार गायकी की और उसे नए अर्थ दिए। वह जब बीमारी से बिस्तर पर थे, तो एक दिन कमरे में चिडिय़ा की तीखी आवाज सुनी। बस तभी तय किया, वह गाएंगे। स्वर-सिद्ध करते उन्होंने सुनने वालों को गान की गहराई समझाई। श्वास उतार-चढ़ाव और शब्दों के मध्य के मौन का जो अर्थभरा संगीत उन्होंने बाद में दिया, वह उनका अपना सिरजा गान-ध्यान ही तो था!
शास्त्रीय संगीत के कई महान साधकों की तरह कुमार भी एक बाल प्रतिभा थे। उनके संगीत ज्ञान से प्रभावित होकर, उनके पिता ने उन्हें एक प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक और शिक्षक बीआर देवधर से मिलवाया। कुमार ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को सीखना शुरू किया और इस तरह उनकी यात्रा शुरू हुई। जब वे सात ही वर्ष के थे तभी उनके गायन की धूम मच गई और उनका सार्वजनिक अभिनंदन हुआ। कन्नड़ मानपत्र में उन्हें संबोधित करते सहज, मनोहर गायन के लिए 'चिह्न (सुवर्ण) गंधर्व' पदवी दी गई। और इस तरह वे हमारे पंडित कुमार गंधर्व हो गए।
कुमार गंधर्व पर आरोप लगता रहा है कि गायन में वह सिर्फ मध्यलय का ही विशेष प्रयोग करते रहे हैं। बकौल कुमार, 'सुरीली नादमयता का सुंदर प्रकटीकरण मध्यमलय से ही होता है।' पर यह भी तो सच है, मध्यमलय को वही निभा सकता है जो स्वर-विन्यास में अनूठी-अपूर्व कल्पना गान का स्थापत्य रचे। उसके महल खड़े करे। कुमार ऐसे ही थे, स्वरों के गहन-ज्ञाता। एक दफा जयपुर में जौहरी राजमल सुराणा के यहां नक्काशीदार मीनाकारी के कंगनों का जोड़ा उन्होंने देखा और केदार राग की 'कंगनवा मोरा' बंदिश उन्हें याद आई। दुख भी हुआ कि अनमोल कंगनों की उस नजाकत को वह बस बंदिश में कभी ला नहीं सके। पर अलग-अलग ऋतुओं में होने वाली वर्षा की झडिय़ों, ऋतुओं और प्रकृति कीधुनों के साथ देखे दृश्यों को उन्होंने बाद में जैसे स्वर-सिद्ध कर लिया था। इसीलिए तो उनकी गायकी उपज सदा खिली-खिली हमें लुभाती है, लुभाती रहेगी।