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शरीर ही ब्रह्माण्ड – माया का खिलौना

ईश्वरीय इच्छा प्रारब्ध है, कर्मफल रूप है। टाली नहीं जा सकती। जीवेच्छा नए कर्मों में कारक बनती है। पूरी हो भी सकती है, नहीं भी पूरी हो सकती। तीसरी इच्छा माया की है, सर्वोपरि है। माया की इच्छा ब्रह्म और जीवात्मा के मध्य ही कार्य करती है।

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Sharir-Hi-Brahmand

फोटो: पत्रिका

सृष्टि में ऊर्जा है, पदार्थ है। एक ब्रह्म है, एक माया है। सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म-सोम के अधिष्ठाता- विष्णु- निद्रामग्न हैं। जीवन के ये दो रूप भी शाश्वत रहते हैं—निद्रा और जागरण। अंधकार और प्रकाश की भी यही पृष्ठभूमि है। जहां निद्रा है, अंधकार है। व्यक्ति किसी भी प्रकार के आक्रमण के लिए उपलब्ध रहता है। अंधकार अविद्या का पर्यायवाची है। अंधकार असुर प्राणों का कार्यक्षेत्र है। आकाश में वायु रूप जल रहता है। जलों का राजा, असुरों का राजा वरुण है। विष्णु की नाभि में कमल पर स्थित ब्रह्मा पर, उस अंधकार के जल समुद्र में दैत्यों ने आक्रमण कर दिया। विष्णु सो रहे थे।


विद्या और अविद्या भी प्रकाश-अंधकार का ही ज्ञान-अज्ञान रूप है। विद्या- धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य रूप है। अविद्या बुद्धि (सम्मोह), राग-द्वेष, अस्मिता, अभिनिवेश रूप है। यही जीवन का वह अंधकार समुद्र है जिसमें विद्या का जन्म होता है। विद्या को माया कहा है- महामाया रूप प्राण संस्था है। विद्या भग रूप है, अविद्या को योगमाया कहा जाता है। इसके कारण अव्यय का विद्या भाग भी प्रकाशित नहीं हो पाता। कृष्ण स्वयं कह रहे हैं कि नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत.. महामाया और योगमाया नित्य सम्बद्ध रहती हैं।


ब्रह्म की शक्ति माया है, ब्रह्म शुद्ध चेतना है। ब्रह्म की इच्छा माया ही उसकी शक्ति है। इसी के भीतर परा शक्ति भी रहती है। अव्यय पुरुष का जो हृदय केन्द्र है वही परा शक्ति (ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र आग्नेय अक्षर प्राणों की शक्तियों का एकीभाव) है। बिना केन्द्र अथवा हृदय के सत्य नहीं बन पाता। यही परा शक्ति-विष्णुमाया रूप में क्षुधा कही गई है—या देवी सर्वभूतेषु क्षुधा रूपेण संस्थिता।


यहां क्षुधा ही कामना है- कुछ बनने की, हो जाने की इच्छा। इसे चेतना का आन्तरिक स्पन्दन कहते हैं। ब्रह्म निष्काम है, निष्क्रिय है, उसमें कुछ बनने की संभावना का स्पन्दन है। ये स्पन्दन अक्षर पुरुष के स्तर पर, प्राण रूप में अभिव्यक्त होते हैं। इच्छा के मूल में ज्ञान है। इच्छा ही क्रिया रूप में तीसरी इच्छा माया की है। प्रकट होती है। शरीर में भी, प्राण में भी। एक ईश्वरीय इच्छा है, दूसरी जीव की इच्छा है।


ईश्वरीय इच्छा प्रारब्ध है, कर्मफल रूप है। टाली नहीं जा सकती। जीवेच्छा नए कर्मों में कारक बनती है। पूरी हो भी सकती है, नहीं भी पूरी हो सकती। तीसरी इच्छा माया की है, सर्वोपरि है। माया की इच्छा ब्रह्म और जीवात्मा के मध्य ही कार्य करती है। जीव की योनि का स्थानान्तरण अथवा मोक्षगति का कार्य माया के हाथ में है। कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर साथ ही रहते हैं। माया दोनों को लेकर चलती है।


माया स्त्री-पुरुष दोनों शरीरों में समान रूप से कार्य करती है। चंूकि जीवात्मा अद्र्धनारीश्वर रूप है और इसके दोनों पक्षों- (स्त्री-पुरुष) का विकास जीवात्मा ही तय करता है, वही कर्म में भेद कर देता है। मन की इच्छाओं की दो ही दिशाएं हो सकती हैं- उर्ध्वगामी या अधोगामी। ऊध्र्वगामी विद्या बुद्धि का तथा अधोगामी अविद्या बुद्धि का मार्ग है- सृष्टि की ओर मन बहता है।
जीवन की पहली आवश्यकता है भीतर के अद्र्धनारीश्वर भाव का संतुलन। इसके लिए ज्ञान चाहिए, विद्या बुद्धि होनी चाहिए। व्यक्ति प्रयास करता है, किन्तु अपूर्णता उसको आगे नहीं बढऩे देती। पुरुष का स्त्रैण भाग अल्प पोषित रहता है। इसका पोषण भी एक परिपक्व पत्नी ही कर सकती है। स्त्री का स्त्रैण भाग भी आज एकांगी शिक्षा ने अपूर्ण कर दिया है। अपने में अपूर्ण पुरुष इसको पूर्णता नहीं दे सकता। दोनों ही अपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।


अपूर्ण मन योगमाया के हाथों खिलौना बन जाता है। ऐसे व्यक्तियों का मन अधिक चंचल रहता है। कृष्ण से अर्जुन अपनी व्यथा कहता है कि हे कृष्ण! यह मन चंचल और प्रमथन (मथना, पीडि़त करना) स्वभाव का तथा बलवान और दृढ़ है, उसका निग्रह करना मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूं—
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। (गीता 6.34)


इसका कृष्ण ने जो उत्तर दिया वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहां कृष्ण अभ्यास को सर्वोपरि कहते हैं। उनके अनुसार—हे महबाहो! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परन्तु, हे कुन्तीपुत्र! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है—
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
(गीता 6.35)
योगमाया चंचलता बढ़ाती है, अविद्या से बांधकर रखती है। जो स्त्री-पुरुष भीतर अपूर्ण हैं, उसके लिए मन पर नियंत्रण कर पाना असंभव है। पहले उसे अभ्यास करके अद्र्धनारीश्वर के, भीतर के संतुलन को व्यवस्थित करना पड़ेगा।

वैराग्य शब्द को हम सतोगुण रूप में ले सकते हैं। मन को सतोगुणी बनाने का पहला कदम सात्विक अन्न है जो मन के धीरे-धीरे सात्विक होने का मार्ग प्रशस्त करता है। योगमाया तामसिक भोजन की ओर मन को खींचेगी। वैराग्य भाव की दृढ़ता से ही सत्त्व मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है। इस मन को स्पन्दित करते रहना भी आवश्यक है। इस हेतु तप-जप--ध्यान-भक्ति ही स्पन्दन के मार्ग हैं। ये स्पन्दन प्राणमय कोश को मनोमय कोश की ओर मोड़ते हैं। सात्विक मन प्राणों को विज्ञान भाव से युक्त करता है। प्राणों के स्पन्दनों को सृष्टि के साथ समन्वित करते हैं।

ब्रह्म की मूल सृजनात्मक ऊर्जा तो माया है। पत्नी में भी माया भाव की प्रतिष्ठा ब्रह्म के साथ ही रहती है। ब्रह्म शरीर में, मन रूप हृदय में, सुसूक्ष्म है और माया भी। स्त्री देह अपरा है, मातृ भाग का बड़ा अंश परा है। यही दो रूप सृष्टि को चलाते हैं। गीता में भी क्षर और अक्षर के रूप में अपरा और परा भाव का निरूपण कर कृष्ण कह रहे हैं कि इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ’ अक्षर कहलाता है—

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।
। (गीता 15.16)

मां के संतान के साथ के सभी कार्यकलाप अक्षर (सूक्ष्म) स्तर के होते हैं। यह देह इसका मत्र्य भाग है और जीवात्मा शाश्वत। तीसरा माया भाग सदा ही अमर है। माया की सुप्त अवस्था रहती है तब सृष्टि संभव नहीं है। सृष्टि के लिए माया को योग, भक्ति, ध्यान, अनुग्रह आदि से जगाना पड़ता है। सृष्टि ब्रह्म के अंश से ही होती है। ब्रह्म का अंश पुरुष में रहता है, माया के आवरणों में। पत्नी जीवन की ऊर्जा है। स्थिर चेतना को जीवन की ओर अनुभूति देती है। आत्मिक समृद्धि का स्रोत है।

स्त्री अंतर्ज्ञान से ब्रह्म तत्त्व को जागृत करती है। मूल में स्त्री-पुरुष दोनों एक ही चेतना के दो भाग हैं। दोनों का मिलन ही ब्रह्म के विवर्त का मार्ग है। माया ही सृष्टि का संहित भाव बनाए रखती है, व्यष्टि का भी, समष्टि का भी।

क्रमश: gulabkothari@epatrika.com