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पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – कमाऊ पूत

हमारा लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा है। जनता सरकारें चुनती रहीं हैं और जनता का 75 सालों से ‘विकास’ होता जा रहा है। यहां तक कि आज गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले भी बढ़ते-बढ़ते जनसंख्या के आधे होने जा रहे हैं।

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गुलाब कोठारी

हमारा लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा है। जनता सरकारें चुनती रहीं हैं और जनता का 75 सालों से ‘विकास’ होता जा रहा है। यहां तक कि आज गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले भी बढ़ते-बढ़ते जनसंख्या के आधे होने जा रहे हैं। कई सरकारी सेवाओं से ‘संतुष्ट होकर’ अब तब हजारों नागरिक या तो आत्महत्या कर चुके हैं या मारे जा चुके हैं। ऐसी ही एक सरकारी योजना है-फसल बीमा योजना, जो वर्षों से नृशंसता का पर्याय बनी हुई है। लगभग पूरे देश के किसान इस योजना से आतंकित हैं। मैंने स्वयं मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री व मौजूदा केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से चर्चा की थी, उन्होंने सार्वजनिक मंच से स्वीकार भी किया था कि बैंकों के मैनेजर और बीमा कंपनियों के अधिकारी अवैध तरीकों से फसल बीमा योजना के नाम पर किसानों को फंसाते हैं। उनका आर्थिक रूप से शोषण करते हैं। कई किसान इस कारण आत्महत्या कर चुके हैं। उधर अपना टारगेट पूरा करके कृषि अधिकारी-बीमा अधिकारी स्वर्ग का सुख भोगते हैं। किसी की भी आत्मा उनको धिक्कारती नहीं है।

कल ही पत्रिका की खबर में सिरोही के एक किसान का बयान छपा है कि बैंक बिना बताए ही फसल का बीमा कर रहे हैं। मंडार-जैतवाड़ा-सोरड़ा जैसे अधिकांश गांवों के किसानों की यही समस्या है। इससे किसानों की अनावश्यक ही प्रीमियम राशि (किस्तें) काट ली जाती हैं। नियमों की जानकारी के अभाव में जो किसान बीमा नहीं कराना चाहते उनके भी किसान क्रेडिट कार्ड के खाते से सीधी किस्तों की राशि काट ली जाती है। किसानों को इसकी जानकारी तक नहीं होती। इस कारण जो राशि खातों में कम हो जाती है उस पर ब्याज और चढ़ा दिया जाता है। किसान भले ही आत्महत्या कर ले, इनका तो टारगेट पूरा हो जाता है। यही सरकार है ‘फॉर द पीपुल’।

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मध्यप्रदेश में जब पत्रिका ने अभियान छेड़ा तब जो तथ्य प्रकट हुए उनसे पता लगा कि किसानों को ऋण-आवेदन के समय बीमा की जानकारी या अस्वीकृति की बात नहीं की जाती थी। अत: किसान लिखकर नहीं दे पाता था। बीमा सम्बन्धी नियमों को फार्म के पीछे अंग्रेजी में, छोटे अक्षरों में अंकित किया जाता था। न तो पढ़ सकते, न ही समझाया जाता।

अधिकारी सदा जनता को लूटने में ही अपनी होशियारी समझता है। मानो वह दूसरे देश से इस कार्य के लिए ठेके पर लाया गया हो। वह इस बात से ज्यादा प्रसन्न होता है कि उसने कानून की गलियां निकालकर बिना नुकसान का मुआवजा दिए किसान को मरने के लिए लौटा दिया। किस्तों की राशि और मुआवजे की रािश का अनुपात कोई देख ले तो चक्कर आ जाए। बीमा कंपनियां सरकार का सबसे बड़ा कमाऊ पूत हैं।

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वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लागू हुई। नाम का डर नीचे वालों को कहां लगता है! मंत्री आते-जाते रहते हैं-संतरी खाते रहते हैं। किसानों को कोई लाभ नहीं मिला। यह तथ्य कौन नहीं जानता -बैंकों के निदेशक जानते हैं- कोई मैनेजर बर्खास्त नहीं हुआ, अवैध कटौती करके भी। बीमा विभाग के जिम्मेदार ऊपर तक मस्त है-मुआवजे की रकम खाकर। किसान परिवार की गरीबी और दुर्दशा पर कोई आंसू नहीं टपकता है। न्यायालय तक गुहार की पुकार पहुंचती ही कहां है जो संज्ञान ले। आम आदमी की तरह समाचार पढ़ लिए जाते हैं। कृषि अधिकारी भी, बैंकों की तरह, बीमा के टारगेट पूरे करने में ही व्यस्त रहते हैं। वैसे ये सभी जनता के नौकर हैं। कैसे कसाई हैं ये-प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अगस्त 2024 के आंकड़ों के अनुसार पिछले आठ सालों में 17.80 करोड़ किसानों ने बीमा के लिए दावा किया था जबकि 62.60 करोड़ किसानों का फसल बीमा कर दिया गया। इनमें से अधिकांश के खातों से सीधी राशि काटकर टारगेट पूरे किए गए। क्या कर लेंगे प्रधानमंत्री जी!