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यह बात भले ही कड़वी लगे पर सच है कि विकास और भ्रष्टाचार के बीच चोली-दामन जैसा संबंध बन चुका है। जब भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात होती है, कथित विकास अवरुद्ध होने लगता है। समय-समय पर सरकारों ने भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों की अनदेखी करते हुए विकास की गाड़ी को आगे बढ़ाकर अपना उल्लू ही सीधा किया है। बाद में कानून की चपेट में आकर कई नेता व अफसर जेल की हवा भी खा रहे हैं।
अब केंद्र सरकार कथित विकास के मार्ग के हर पत्थर को स्थायी तौर पर हटाना चाहती है। इसलिए केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली का यह कहना कि भ्रष्टाचार विरोधी कानून के कारण सरकार अनिर्णय का शिकार हो रही है, इसकी वकालत करना है कि निर्णय लेने वाले व्यक्तियों को भयमुक्त रखना जरूरी है। जेटली चाहते हैं कि तीन दशक पुराने भ्रष्टाचार विरोधी कानून में बदलाव किया जाए ताकि समय के साथ बदली हुई स्थितियों में सरकार के काम में रुकावट न हो। जेटली का कथन इसका संकेत समझा जा सकता है कि विकास के नाम पर भ्रष्टाचार की लताएं अमर होना चाहती हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि वर्तमान कानून देश में भ्रष्टाचार रोकने में नाकाम रहे हैं। लिहाजा इन कानूनों में इस तरह के संशोधन किए जाने की जरूरत है जिनसे निर्णय लेने वाले व्यक्तियों को कानून का भय हो सके। साथ ही और वे पारदर्शिता के साथ समग्रता में विचार करते हुए निर्णय कर सकें। हमें तात्कालिक व एकांगी विकास नहीं, दीर्घकालिक व समग्र विकास की जरूरत है। संसद में काफी सोच-विचार के बाद ही कायदे-कानून बनाए जाते हैं। लेकिन, कारोबारी सहूलियत प्रदान करने के लिए अक्सर नियमों का पालन जरूरी नहीं समझा जा रहा है। उदाहरण के लिए जयपुर का मास्टर प्लान ही लें, तो सरकार विकास के नाम पर उसकी अनदेखी कर रही है जबकि यह काफी सोच-विचार कर शहर की बेहतरी के लिए बनाए गए थे।
इसी तरह पर्यावरण नियमों का पालन वातावरण को जीवन के अनुरूप बनाए रखने के लिए जरूरी है पर विकास के मार्ग में इसे भी अवरोध माना जाने लगा है। दरअसल, उदारीकरण के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के लगभग सारे काम गैर-सरकारी हाथों में जा रहे हैं। ऐसे माहौल में सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग की आशंका पहले से बढ़ गई है। सरकार का काम सिर्फ कारोबारी सहूलियत प्रदान करना ही नहीं बल्कि संसाधनों का दुरुपयोग रोकना व समग्र हित सुनिश्चित करना भी है। कानून में बदलाव करते समय यह देखना जरूरी होगा कि इसका लाभार्थी कौन है?

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