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खरीद की अव्यवस्था और किसानों की परीक्षा

सरकार ने इस साल मूंगफली का न्यूनतम समर्थन मूल्य 7,263 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है, लेकिन प्रति किसान केवल 40 क्विंटल की अधिकतम खरीद सीमा भी लागू कर दी गई है। इसका मतलब यह हुआ कि एक किसान की लगभग एक हेक्टेयर से भी कम उपज ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी जाएगी और बाकी फसल उसे कम दामों पर बेचनी पड़ेगी।

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गजेंद्र सिंह, लोक नीति विश्लेषक

मंडियों में इस समय रबी की फसलों के बड़े-बड़े ढेर लगे हैं। जैसे-जैसे फसल आती है, व्यापारी अपने दफ्तरों को व्यवस्थित करने में लगे हैं ताकि तौल के समय कोई भी दाना उनके हिसाब से बाहर न जाए। वहीं, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करने वाली केंद्र और राज्य की एजेंसियां और सहकारी विभाग के कर्मचारी अपने दफ्तरों में निश्चिंत दिखते हैं, क्योंकि तौल, गुणवत्ता और खरीद की प्राथमिकता उन्हीं के नियंत्रण में है। सरकारी खरीद अक्सर धीमी रहती है- कभी आदेश के इंतजार करने के कारण रुक जाती है, तो कभी नए निर्देश आने तक पूरी प्रक्रिया ठहर जाती है। इस बीच, किसान ही परेशान रहता है-कभी मंडी की लंबी लाइन में घंटों खड़ा, कभी ई-मित्र के सामने आधी रात तक टोकन के लिए इंतजार करता और कभी ऐसे कागजी झंझट में फंस जाता जहां फसल खेत में नहीं, लेकिन कागजों में दिख रही है। किसानों के सामने यह संकट सिर्फ मौसम से जुड़ी समस्या नहीं है, यह कृषि प्रशासन की संरचनात्मक कमियों, सहकारी तंत्र की कमजोरी और न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रबंधन में छिपी खामियों को उजागर करता है। मूंगफली की सरकारी खरीद में देरी, डीएपी और यूरिया की कमी और गेहूं-सरसों की बुवाई की चुनौतियां- किसान एक साथ तीन संकट झेल रहा है।

खेत में गेहूं और सरसों की बुवाई का सही समय तेजी से निकल रहा है और उर्वरक और यूरिया की कमी उसकी चिंता और बढ़ा रही हैं। किसान के लिए यह पूरा मौसम एक लंबी परीक्षा की तरह है- जहां मेहनत वह खुद करता है, लेकिन नतीजे किसी और के निर्णय पर निर्भर होते हैं। सरकार ने इस साल मूंगफली का न्यूनतम समर्थन मूल्य 7,263 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है, लेकिन प्रति किसान केवल 40 क्विंटल की अधिकतम खरीद सीमा भी लागू कर दी गई है। इसका मतलब यह हुआ कि एक किसान की लगभग एक हेक्टेयर से भी कम उपज ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी जाएगी और बाकी फसल उसे कम दामों पर बेचनी पड़ेगी।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि 40 क्विंटल की सीमा आखिर क्यों तय की गई? कहने को तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार फसल का कुल बाजार मूल्य और अनुमानित उत्पादन खरीद की मात्रा को प्रभावित करते हैं, क्योंकि एमएसपी का उद्देश्य किसानों को मजबूरी में फसल बेचने से बचाना और उन्हें उचित लाभ दिलाना होता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि इन सब के बावजूद भी मूंगफली का बाजार खरीद मूल्य 4,500 से 5,800 रुपए के बीच ही रहा, जो किसान की लागत भर को मुश्किल से पूरा कर पाता है-लाभ की तो बात ही दूर है। इन सबके बीच पिछले साल मूंगफली की खरीद ने न्यूनतम समर्थन मूल्य तंत्र में छिपी गंभीर खामियों को उजागर कर दिया। 2024 में राजस्थान में मूंगफली का अनुमानित उत्पादन लगभग 20 लाख टन था, लेकिन केंद्रीय सहकारी संस्था- नैफेड और सहकारी समितियों की कुल खरीद क्षमता केवल 3.0 लाख टन तक थी। समर्थन मूल्य (6,783 रुपए) में खरीदी गई फसल के अलावा इसके परिवहन, भंडारण, प्रबंधन और अन्य खर्चों पर लगभग 3,000 रुपए प्रति क्विंटल अतिरिक्त व्यय हुआ। छह महीने बाद वही फसल बाजार में 3,500-4,000 रुपए प्रति क्विंटल में बेचनी पड़ी, जिससे प्रति क्विंटल लगभग 6,500 रुपए का घाटा उठाना पड़ा। इस सरकारी खरीद-बिक्री के तंत्र से कई सवाल उठते हैं- अगर सरकार को ही नुकसान में बेचनी पड़ी, तो खरीद क्यों की गई? अगर खरीद जरूरी थी, तो प्रबंधन ऐसा क्यों कि घाटा सरकार का और लाभ दलालों का? क्या कृषि विभाग, सहकारी तंत्र, केंद्रीय सहकारी संस्थान और नीति-निर्माता इस ‘व्यवस्था की मिलीभगत’ से अनजान हैं?

आखिर ऐसा क्यों है कि केंद्र सरकार की सहकारी संस्थाएं, राज्य प्रशासन, मंडी समिति और राज्य सहकारी समिति- सभी इस हर साल होने वाले ‘खरीद उत्सव’ के बावजूद लगातार घाटे में रहते हैं? क्या यह सचमुच यही व्यवस्था है या प्रबंधन की त्रुटियां और नियोजन की कमजोरियां इसका कारण हैं? अगर यही काम निजी व्यापारी, तेल उत्पादक या विदेशी निर्यातक कर रहे होते, तो क्या वे भी हर साल इतनी बड़ी हानि उठाते? स्पष्ट है कि यह गणित दिखाता है कि वर्तमान नीति, खरीद प्रबंधन और तंत्र में गंभीर ढांचागत कमजोरियां हैं। यह व्यवस्था किसानों को सुरक्षा देने के बजाय दलालों और बिचौलियों के लाभ का साधन बन चुकी है।

अधिकांश राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल कुछ फसलों तक सीमित है और जटिल प्रशासनिक प्रक्रियाएं किसानों को पूरा लाभ लेने से रोकती हैं। अब समय है कि वे खुले बाजार में बिक्री के साथ अंतर राशि का सीधे भुगतान, डिजिटल पारदर्शिता और लचीली खरीद नीति अपनाएं। इससे न केवल किसानों को उनकी मेहनत का सही मूल्य मिलेगा, बल्कि सरकारी संसाधनों का अधिक प्रभावी उपयोग और तंत्र की जवाबदेही भी सुनिश्चित होगी। यही अवसर है, भारत की कृषि समर्थन प्रणाली को वास्तविक रूप में किसान-केंद्रित और टिकाऊ बनाने का। साथ ही, राज्य सरकारों को न्यूनतम समर्थन मूल्य तंत्र को केवल खरीद और भुगतान तक सीमित न रखकर इसे व्यापक कृषि नीति का हिस्सा बनाना चाहिए। इसका अर्थ है- बीज, उर्वरक, सिंचाई और विपणन जैसे सभी चरणों में किसान को मजबूत समर्थन देना, डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से डेटा-संचालित निर्णय लेना।

ऐसे समग्र दृष्टिकोण से न केवल किसान की आर्थिक सुरक्षा बढ़ेगी, बल्कि उत्पादन की गुणवत्ता और बाजार में प्रतिस्पर्धात्मकता भी मजबूत होगी। यदि राज्य और केंद्र मिलकर न्यूनतम समर्थन मूल्य तंत्र को वैज्ञानिक, पारदर्शी और जवाबदेह बनाते हैं, तो यह भारत की कृषि प्रणाली को दीर्घकालीन रूप से मजबूत, टिकाऊ और किसानों के लिए वास्तव में लाभकारी बना सकता है।