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मुक्त व्यापार समझौतों से लाभ पर सवाल

locationजयपुरPublished: Jan 27, 2019 01:17:52 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

विदेशी व्यापार विशेषज्ञों में इस बात को लेकर लगभग मतैक्य है कि वस्तुओं के व्यापार में क्षेत्रीय विस्तृत आर्थिक साझेदारी यानी आरसीइपी समझौते से भारत को कोई लाभ नहीं होगा। इससे आयात बढ़ेगा, बाजार में खासकर कृषि उत्पादों की कीमतें कम होंगी और किसानों की आय प्रभावित होगी।

World Trade Organization

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अश्विनी महाजन, आर्थिक मामलों के जानकार

विश्व व्यापार संगठन के समझौते के अनुसार अन्य बातों के अलावा देशों के बीच व्यापार को बढ़ाने के लिए आयात शुल्क कम करने और गैर-टैरिफ बाधाएं समाप्त करना तय किया गया था। यह समझौता अभी भी चलन में है, इसके बावजूद कई देश द्विपक्षीय या बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते भी कर रहे हैं। मुक्त व्यापार समझौते का मतलब होता है शून्य या बहुत ही कम आयात शुल्क। भारत ने भी कई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते किए हैं। इनमें श्रीलंका, जापान, दक्षिण कोरिया, आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते चंद उदाहरण हैं। मुक्त व्यापार समझौतों के बारे में कई बार तर्क दिया जाता है कि इससे देश को कुछ आर्थिक नुकसान हो सकता है, पर कई कूटनीतिक लाभ भी होते हैं और इन देशों के साथ राजनयिक संबंध बढ़ाने का मौका मिलता है।

एक ऐसा ही समझौता करने की ओर भारत सरकार बढ़ रही है। इस समझौते का नाम है आरसीइपी यानी क्षेत्रीय विस्तृत आर्थिक साझेदारी। नवंबर 2012 में कम्बोडिया में हुए ‘आसियान’ के शिखर सम्मेलन में आरसीइपी का प्रस्ताव लाया गया। इसमें प्रारंभिक तौर पर 16 देश शामिल किए गए। इनमें 10 आसियान देशों इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रुनेई, वियतनाम, लाओस, म्यांमार, कम्बोडिया के अलावा छह अन्य देश जापान, द. कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, भारत और चीन शामिल किए गए। इन 16 देशों में दुनिया के 3.4 अरब लोग या विश्व की 45 प्रतिशत जनसंख्या ही नहीं रहती, बल्कि विश्व की 39 प्रतिशत जीडीपी (क्रय क्षमता समता के आधार पर) भी सृजित होती है। वैश्विक व्यापार में इन देशों का हिस्सा 30 फीसदी है, इसलिए अस्तित्व में आने पर यह सबसे बड़ा क्षेत्रीय व्यापार समझौता होगा।

दूसरी ओर, मुक्त व्यापार समझौतों की बात करें तो भारत का अनुभव उत्साहवर्धक नहीं रहा है। वर्ष 2009 में भारत ने आसियान देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया था। इसके बाद वर्ष 2009-10 और 2017-18 के बीच आसियान देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा 7.7 अरब डॉलर से बढ़ता हुआ 13 अरब डॉलर पहुंच गया। जापान और दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौता होने के बाद 2009-10 और 2017-18 के बीच जापान के साथ हमारा व्यापार घाटा दोगुना हो गया और दक्षिण कोरिया के साथ हमारा व्यापार घाटा 5 अरब डॉलर से बढ़ता हुआ 12 अरब डॉलर (यानि लगभग ढाई गुना) हो गया।

यदि हम सभी आरसीइपी देशों के साथ व्यापार घाटे की बात करें तो 2017-18 में यह घाटा 104 अरब डॉलर का है और यह भारत के कुल व्यापार घाटे 162 अरब डॉलर के 64 प्रतिशत के बराबर है। जापान और दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौते का भी कमोबेश इसी प्रकार का अनुभव रहा। विदेशी व्यापार विशेषज्ञों में इस बात को लेकर लगभग मतैक्य है कि वस्तुओं के व्यापार में आरसीइपी समझौते से भारत को कोई लाभ नहीं होगा।

पिछले चार वर्षों से ज्यादा समय से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार भारत को दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने हेतु तमाम प्रयास कर रही है। ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्ट-अप’, ‘कौशल विकास’, ‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस’ सरीखे प्रयास यही संकेत दे रहे हैं। स्पष्ट है कि आरसीइपी समझौता होने के बाद आयात और ज्यादा बढ़ जाएंगे, खासतौर पर चीन से। चीन के साथ बाद में एक अलग समझौते की बात भी कही जा रही है। लेकिन सच यह है कि जहां आसियान देशों के साथ 90 से 92 प्रतिशत उत्पादों पर आयात शुल्क शून्य किया जाना है, चीन के 74 प्रतिशत उत्पादों पर आयात शुल्क शून्य करने का प्रस्ताव भारत सरकार ने दिया है। इससे भारत में चीन से आयात की बाढ़ आ सकती है। भारत सरकार जो पिछले कुछ समय से चीन से आयात रोकने के लिए टैरिफ बढ़ाने, गैर-टैरिफ उपाय अपनाने, एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाने के उपाय कर रही है, आरसीइपी के बाद ये प्रयास रोकने को बाध्य हो सकती है। आरसीइपी समझौते के बाद न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया से आयात बढऩे और बाजार में उत्पादों की कीमतें कम होने से किसानों की आय प्रभावित हो सकती है। ऐसे में वर्तमान सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य से दूर हो सकती है।

समझौते के पैरोकार तर्क देते हैं कि सेवाओं के संदर्भ में समझौते से लाभ हो सकता है। जबकि आसियान में हुए ऐसे ही एक समझौते का अनुभव भी भारत के लिए अधिकांशत: खट्टा ही रहा। उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत ने विश्व व्यापार संगठन समझौतों में बौद्धिक संपदा के बारे में जो वचन दिए हुए हैं, आरसीइपी में उनसे आगे बढ़कर समझौते किए जाने की आशंका है। उदाहरण के लिए दवा कंपनियों के पेटेंट को 20 साल से आगे बढ़ाने, डाटा एक्सक्लूसिविटी के प्रावधान लागू करने आदि के प्रस्ताव आरसीइपी वार्ता का हिस्सा हैं। यदि यह समझौता होता है तो दवा कंपनियों के पेटेंट की अवधि 20 साल से ज्यादा हो जाएगी और डाटा एक्सक्लूसिविटी का लाभ भी उन्हें मिलेगा। मतलब यह होगा कि जो जानकारियां कंपनियों के पास हैं उन पर सदैव उन्हीं का अधिकार रहेगा। इन प्रावधानों के लागू होने से जनता के लिए सस्ती दवाएं सुलभ करने के मार्ग में बाधाएं बढ़ जाएंगी।

तो आरसीइपी क्यों? यह प्रश्न आर्थिक विश्लेषकों, किसान संगठनों को ही नहीं, बल्कि फिक्की और सीआइआइ जैसे उद्योग चैम्बरों को भी विचलित कर रहा है, और वे सरकार से गुहार लगा रहे हैं इस समझौते पर आगे न बढऩे के लिए। सरकार के भीतर और बाहर आरसीइपी के बढ़ते विरोध के मद्देनजर भारत सरकार ने मंत्रियों का एक अनौपचारिक समूह भी गठित किया है। इन आशंकाओं को दरकिनार करते हुए, कि भारत इन वार्ताओं से बाहर आ सकता है, एक समाचार पत्र के अनुसार मंत्रियों के समूह ने निर्णय लिया है कि भारत आरसीइपी से जुड़ा रहेगा।

(दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन। स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक।)

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