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भारत-चीन संबंधों की कड़वी सच्चाई में रूस का ‘त्रिकोण’ नहीं टिकता

विनय कौड़ा (अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार )

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जयपुर

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VIKAS MATHUR

Jun 12, 2025

रूस, भारत और चीन के बीच जिस त्रिकोणीय सहयोग की कल्पना की गई थी- वह अब एक ऐसे भ्रम का प्रतीक बन चुका है, जिसे केवल वही राष्ट्र जीवित रखना चाहता है जो अपने पुराने वैभव की छाया में आज की विवशता छिपाना चाहता है। भारत अब उस मोड़ पर है जहां वह विकल्पों की भीड़ में से केवल वही मार्ग चुनेगा जो उसकी संप्रभुता, सुरक्षा और आत्मगौरव के अनुकूल हो। यही वह बिंदु है जहां रूस-भारत-चीन त्रिकोण (आरआइसी) का विचार रणनीतिक विसंगति प्रतीत होता है।

मॉस्को में हाल ही आयोजित 'भविष्य का मंच-2050' में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने एक पुराना स्वर दोहराया। उन्होंने कहा कि भारत और चीन के मध्य तनाव अब 'काफी हद तक' कम हो गया है और इसीलिए रूस चाहता है कि आरआइसी संवाद को पुन: प्रारंभ किया जाए। उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह पहल बहुधु्रवीय यूरेशिया की दिशा में पहला कदम हो सकती है। यह विचार सतही रूप से मोहक लगता है- तीन महाशक्तियां, एक ऐतिहासिक महाद्वीप और साझा शक्ति का एक नया विन्यास। पर जब इसे उस सामरिक वास्तविकता की कसौटी पर रखा जाता है, जिसमें भारत आज खड़ा है, तो यह प्रस्ताव मात्र एक मृत अवधारणा का कृत्रिम पुनर्जीवन लगता है। भारत और चीन के बीच संबंध अब केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि संरचनात्मक प्रतिद्वंद्विता का रूप ले चुके हैं।

गलवान की घाटियों में 2020 में बहा लहू एक शिलालेख की भांति खड़ा है, जिसकी भाषा स्पष्ट है- चीन भारत को न तो क्षेत्रीय प्रभुत्व में सहभागी मानता है, न वैश्विक मंचों पर बराबरी का स्थान देने को इच्छुक है। सीमाओं पर झड़पें, संयुक्त राष्ट्र में भारत के हितों का विरोध, पाकिस्तान के साथ रक्षा तकनीक का गुप्त हस्तांतरण- ये सब उस मानसिकता के परिचायक हैं, जो भारत की खिलाफत की योजना पर काम कर रही है। जब भारत ने 'ऑपरेशन सिंदूर' के अंतर्गत पाकिस्तान के आतंकी नेटवर्क पर एक सटीक, नियंत्रित और निर्णायक सैन्य प्रहार किया, तो जिस तरह से चीन ने पाकिस्तान की खुली सैन्य और खुफिया सहायता की, वह भारत के लिए केवल एक भू-राजनीतिक संकट नहीं, बल्कि एक बुनियादी सच्चाई का अनावरण था।

चीन ने पाकिस्तान को रडार डेटा, सैटेलाइट चित्र और इलेक्ट्रॉनिक खुफिया सूचनाओं के माध्यम से न केवल ऑपरेशनल जानकारी दी, बल्कि उसका ड्रोन नेटवर्क पाकिस्तान की सीमाओं पर वास्तविक समय निगरानी के लिए सक्रिय कर दिया गया। यह 'सूचना साझाकरण' नहीं था; यह सहयोग की वही भाषा थी, जो विश्व युद्धों में गठबंधनों के पूर्ववर्ती संकेतों में पाई जाती है। चीन की यह रणनीति आकस्मिक नहीं है, यह वर्षों से सुसंगठित, योजनाबद्ध और चरणबद्ध रही है।

पाकिस्तान का हालिया रक्षा बजट- जो अब 9 अरब डॉलर के ऐतिहासिक उच्चतम स्तर तक पहुंच चुका है- इस सहयोग की आर्थिक अभिव्यक्ति है। चीन पाकिस्तान को न केवल आर्थिक सहायता दे रहा है, बल्कि उसे आधुनिक युद्ध की चौथी पीढ़ी की तकनीक से लैस कर रहा है। उसे जे-35 स्टील्थ फाइटर दिए जा रहे हैं- वे विमानों की अगली पीढ़ी हैं जो रडार से बचते हैं और इलेक्ट्रॉनिक जामिंग की तकनीक से युक्त हैं। इसके साथ-साथ, चीन पाकिस्तान को हाइपरसोनिक मिसाइलें प्रदान कर रहा है। भारत के विरुद्ध यह एक प्रच्छन्न, परंतु पूर्ण युद्ध संरचना है। ऐसे में रूस का यह कहना कि भारत और चीन के संबंध अब 'सुधर' चुके हैं, किस यथार्थ पर आधारित है?

रूस स्वयं आज उस स्वतंत्र रणनीतिक स्थिति में नहीं है, जो वह शीतयुद्ध के समय रखता था। यूक्रेन युद्ध के पश्चात वह पश्चिम से पूरी तरह कट चुका है और अब चीन पर उसकी आर्थिक, सामरिक और तकनीकी निर्भरता बढ़ गई है। चीन उसकी ऊर्जा खरीद रहा है, तकनीक साझा कर रहा है, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसे समर्थन दे रहा है। ऐसे में रूस की यह चाह कि भारत और चीन एक साथ आएं, अब एक संप्रभु विचार नहीं, बल्कि चीनी हितों से अनुप्राणित रणनीतिक विवशता है। भारत के लिए यह स्पष्ट हो गया है कि 'त्रिकोणीय' धारणाएं अतीत की वस्तु हैं। आज की विश्व-व्यवस्था बहुधु्रवीय है, पर वह स्वायत्तता के बल पर टिके धु्रवों की मांग करती है- न कि ऐसे गठबंधनों की जो केवल दिखावे के लिए हों। भारत ने यह बात समय रहते समझ ली है। 'क्वाड', 'आई2यू2', अमरीका, यूरोपीय संघ, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत के संबंध अब केवल सामरिक नहीं, बल्कि रणनीतिक समरसता के स्तर तक पहुंच चुके हैं।

भारत किसी ऐसे त्रिकोण का हिस्सा नहीं बन सकता जिसमें दो शिखर पहले से ही एक-दूसरे की धुरी बन चुके हों और तीसरे को केवल 'संतुलन' का नाम देकर एक औपचारिक उपस्थिति तक सीमित कर दिया जाए। यह प्रस्ताव कि भारत एक ऐसे मंच पर लौटे जहां चीन और रूस पहले से एक सामरिक लय में बंधे हैं, इतिहास की आंखों में झांकने के बजाय पीठ फेर लेने जैसा होगा। जैसे इतिहास अपने समय की मांग पर पुरानी व्यवस्थाओं का विसर्जन करता है, वैसे ही भारत को भी अब उन अवधारणाओं से बाहर आना होगा जो केवल कागजों और घोषणाओं में जीवित हैं। रूस द्वारा आरआइसी के पुनरुद्धार का विचार, चाहे जितना भी सौहार्द्रपूर्ण प्रतीत हो, एक कूटनीतिक प्रतिध्वनि भर है- वह प्रतिध्वनि जो न तो भारतीय हितों से स्पंदित होती है, न ही उसकी सामरिक चेतना से।