राम ने मुस्कुराते हुए अहिल्या की ओर देखा, वे तनिक विचलित हो गईं। कहा, ‘दोष केवल उनका ही नहीं है। उनका क्रोध तो बहुत पहले ही समाप्त हो गया था, पर मेरी लज्जा समाप्त नहीं होती। महर्षि गौतम जैसे महान विद्वान और यशस्वी पुरुष की स्त्री भी यदि इतनी सहजता से किसी धूर्त के छल में फंस जाए तो लज्जा आएगी न! मैं चाह कर भी समझ नहीं पाती कि उन्हें कैसे मुख दिखा पाऊंगी।’
राम तनिक गम्भीर हुए। पूछा, ‘मुझे जानती हो मातेय?’ अहिल्या कांप उठीं। लगा जैसे एकाएक शरीर के ऊपर चढ़ गई पत्थर की परत टूट कर बिखर सी गई हो। बोलीं, ‘क्या कहा प्रभु? मातेय?’ राम ने कठोर शब्दों में कहा, ‘शंका न कीजिए मातेय! स्वयं राम ने आपको मातेय कहा है, फिर इस सृष्टि में किसी की सामथ्र्य नहीं कि वह आपके चरित्र पर प्रश्न उठाए। आप लज्जा से मुक्त होइए और पतिलोक को प्रस्थान कीजिए, महर्षि गौतम आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’
‘स्वामी और मैंने मिलकर आपके आने तक स्वयं का निष्कासन तय किया था। आपके आने भर से ही मेरी मुक्ति हो गई, पर आपने तो मुझे ऊंचे आसन तक पहुंचा दिया प्रभु? यह कैसी कृपा है देव?’, अहिल्या आश्चर्य में डूब गई थीं। ‘किसी स्त्री के साथ हुए छल का दण्ड उस स्त्री को ही दिया जाना अधर्म है देवी! आपका निष्कासन ही अधर्म है। राम की यात्रा ऐसे हर अधर्म के नाश के लिए ही प्रारंभ हुई है, अन्यथा जनकपुर की राह में आपकी कुटिया नहीं आती। आप जैसी धार्मिक और संस्कारशील स्त्रियां अपनी पवित्रता के लिए केवल और केवल स्वयं के प्रति उत्तरदायी होती हैं। आप निश्चिन्त हो कर प्रस्थान कीजिए।’ राम दृढ़ थे। अहिल्या ने उन्हें प्रणाम किया।
दूर खड़े ऋषि विश्वामित्र ने मन ही मन कहा, ‘तुम अद्भुत हो राम! जो समाज द्वारा अपवित्र बता कर त्याग दी गई स्त्री को भी अम्मा कह कर अपनाने का साहस कर सकता हो, वही युग निर्माता होता है। आज से यह युग तुम्हारा है।’
(लेखक पौराणिक पात्रों और कथानकों पर लेखन करते हैं )