
समाज में हमने बेटियों की सुरक्षा को लीलने वाले कितने शैतान डगर-डगर पर खड़े कर दिए हैं ,
सच, जब एक बच्ची बोलती है.... उसे बुरा लगता है तो हम बड़ों का सिर शर्म से झुक जाता है। वो एक बच्ची ही तो है, लेकिन अपनी मासूम बोली से कड़वा सच बोल हम बड़ों को सोचने के लिए मजबूर कर देती है। अभी इंदौर में एक सार्थक कार्यक्रम का आयोजन था (बच्चियों के प्रति बढ़ते अपराध "क्यों कहा जाने लगा, हाथ लगाओ डर जाएगी बाहर निकालो मर जाएगी"। इंदौर के कई वरिष्ठ लोगों ने शिरकत की। सभी ने अपनी राय रखी। शीर्ष अधिकारी थे, कुछ सम्माननीय व्यक्तित्व, विधायक, पत्रकार, समाजिक सारोकार से जुड़े लोग....अद्भुत विवेचनाएं सामने आईं। यदि सबकी बातों पर थोड़ा-थोड़ा अमल किया जाए तो हम बेहतरीन समाज की रचना कर सकते हैं, ऐसा समाज जहां बचपन सुरक्षित है, जवानी खुशियों के रंग के साथ परवान चढ़ती है लेकिन सारे वाद-प्रतिवाद के बीच कॉलेज की छात्रा के साथ, स्कूल की एक बच्ची भी थी।
कार्यक्रम कॉलेज की छात्रा और स्कूल की बच्ची की उपस्थिति से सार्थक साबित हुआ। कॉलेज की छात्रा कहती है, वह इस तरह के कार्यक्रम में अब आना नहीं चाहती क्योंकि उसका सपना है, बदलाव का। वह सोचती है, अब यह घिनौने अपराध जड़ से खत्म हो जाने चाहिए। वहीं शासकीय कन्या माध्यमिक विद्यालय की छात्रा, पूरे स्कूल के गणवेश में...सभा को साष्टांग दंडवत प्रणाम कहने वाली। कहना शुरू करती है, जब एक बच्ची खेलना चाहती है, उसकी माँ उसे खेलने जाने नहीं देती, उसे बुरा लगता है। जी हां, उस बच्ची को बुरा लगता है क्योंकि उसकी माँ अपनी बच्ची की सुरक्षा के लिए चिंतित है। माँ को डर है, वह खेलने बाहर गई, घर से दूर तो उसके साथ कुछ अनर्थ ना हो जाए। वह बच्ची लड़खड़ाती जुबान पर काबू रखते हुए कहती है, जब लड़की सपने देखती है, पढ़ना चाहती है, कुछ करना चाहती है...उसकी शादी कर दी जाती है तब उसे बुरा लगता है। सोचिए, क्यों उसे पढ़ने से रोका जाता है? क्यों उसे सपने देखने से रोका जाता है? समाज में हमने बेटियों की सुरक्षा को लीलने वाले कितने शैतान डगर-डगर पर खड़े कर दिए हैं , माँ बाप पराया धन समझ उसे घर में रखते हैं, शादी कर इज्जत बचाना चाहते हैं। समाज बंदिशे लगाकर उसे सुरक्षित रखना चाहता है। उसकी शुचिता को जीवन से बड़ा समझने-समझाने का दिखावा, मासूम नन्हीं सी जान पर मन भर का बोझ डाल देता है, जो उसे कभी उसके मन की नहीं करने देता।
सच शर्मिंदा हो जाते हैं हम बड़े , जब शासकीय स्कूल में पढ़ने वाली आठवीं कक्षा की, कुछ कर दिखाने का जज्बा रखने वाली लड़की कहती है उसे बुरा लगता है....बुरा उसे नहीं हमें लगना चाहिए क्योंकि यह घिनौना समाज हमने ही बनाया है। निर्भया को तो हम और आप बचा ना सके, चलिए नन्हीं कलियों को समय से पहले मुरझाने से रोके...कुछ तो करें...कुछ तो करें...आए-बैठे-मिलकर बात करें। संवाद का सेतु बनाएं, दूरियां कम करें। फीलिंग सेफ-फीलिंग स्पेशल, गुडटच-बैडटच के जो कोर्स बड़े प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं, उन्हें गलियों-तंग बस्तियों के स्कूलों तक लेकर जाएं। सजग रहें, जो बीज समाज में बोए जा रहे हैं उसकी फसल बहुत जहरीली है, उसे वक्त रहते ही जड़ से खत्म करना होगा। बनाना होगा ऐसा समाज, जहां एक बच्ची हंसती-खेलती मुस्कुराएं...दंडवत प्रणाम करते हुए यह ना बोले कि उसे बुरा लगता है।
श्रुति अग्रवाल
-- फेस बुक से साभार
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