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चुनौती है राजनीति, जाति और आबादी का समीकरण

11 जुलाईः विश्व जनसंख्या दिवस - बढ़ती जनसंख्या के कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है। अशिक्षा और गरीबी जनसंख्या वृद्धि के अहम कारक हैं, जिनका सीधा संबंध जाति से है, जिसका फायदा उठाते हुए कई राजनीतिक दल सत्ता के लिए संसाधनों का आवंटन और वितरण जाति के आधार पर करने की बात करते हैं।

जयपुर

Nitin Kumar

Jul 11, 2024

दुर्गेश वर्मा और शरवेंद्र
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं
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हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी आज विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जा रहा है। बढ़ती हुई जनसंख्या भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक अहम चुनौती बन गई है। आज पूरा विश्व गरीबी, भूख, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य, अशिक्षा जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। इनसे निपटने के लिए वर्ष 1989 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की गवर्निंग काउंसिल ने हर वर्ष 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। आज एक ओर चीन की जनसंख्या लगातार घट रही है, तो दूसरी तरफ भारत की जनसंख्या लगातार चिंताजनक रूप से बढ़ रही है। अच्छी बात तो यह है कि आयु वितरण के संदर्भ में भारत इन देशों से बहुत आगे है हमारी औसत आयु 28 वर्ष है जबकि अमरीका और चीन की क्रमश: 38 और 39 वर्ष है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष रिपोर्ट 2023 के अनुसार, भारत की 25% जनसंख्या की आयु 14 साल से कम है, 18% लोग 10 से 19 साल की आयु के हैं, 10 से 24 साल के लोग 26% तथा 15 से 64 साल के लोग 68% हैं।

आंकड़ों के अनुसार, देश की जनसंख्या 1947 में 33.6 करोड़ थी जो अब 1.43 अरब हो गई है। इसने लंबी चुनाव प्रक्रिया, जातिगत राजनीति और धर्मगत-सांप्रदायिक राजनीति जैसी चिंताओं को जन्म दिया है। हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव के लिए पंजीकृत मतदाताओं की संख्या 96.9 करोड़ थी। सात चरणों में चुनाव की यह भी एक वजह है। बढ़ती हुई जनसंख्या राजनीतिक लाभ का पर्याय बन चुकी है। राजनीतिक दल जाति का चश्मा पहनकर इसे अवसर के रूप में देखते हैं। ‘जाति और राजनीति’, भारत में चुनाव व्यवस्था का अभिन्न एवं अनिवार्य अंग बन चुकी है। हाल ही में हुए 18वीं लोकसभा के चुनाव में भी जाति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ा। लगभग सभी 543 सीटों में राजनीतिक दलों ने जातियों के समीकरण को केंद्र में रखते हुए उम्मीदवार उतारे। अगर इस देश में जाति/समुदाय एक मुद्दा नहीं होता, तो लोग इस तरह के परिणामों की तलाश नहीं करते - जैसे ‘किस पार्टी ने किस जाति के लोगों को अधिक टिकट दिए?’ या फिर ‘किस जाति/समुदाय के सबसे अधिक प्रतिनिधि थे?’" जाति और राजनीति का संगम लोगों की मनोवृत्ति में पूर्णत: समाहित हो गया है।

भारतीय राजनीति में जाति की लोकप्रियता एवं महत्व को उसकी जनसंख्या के तराज़ू पर तोला जाता रहा है - जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी लोकप्रियता। राजनीतिक सत्ता के लिए दलों की गोलबंदी भी जातियों की गोलबंदी को केंद्र में रख कर की जाती है। वोट मांगने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अब एक दुश्चक्रपूर्ण प्रक्रिया बन गई है, जिसमें ‘वोट बैंक की राजनीति’ ने धार्मिक व जातीय पहचान को राजनीतिक पहचान के साथ एकीकृत कर दिया है। राजनीति, जाति और जनसंख्या के इस समीकरण ने नए सामाजिक विच्छेदन को जन्म दिया है जो भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था के समक्ष जटिल चुनौती है। जनसंख्या नियंत्रण और स्वास्थ्य सुधार के सरकारी प्रयासों के बावजूद, भारत आज भी जागरूकता, शिक्षा, प्रेरणा, राजनीतिक प्रतिबद्धता, सामुदायिक भागीदारी और अंतर-क्षेत्रीय समन्वय की कमी के कारण जनसंख्या के मुद्दों को संबोधित करने में विफल है। तीव्र दर से बढ़ती जनसंख्या विभिन्न समस्याओं का एक अत्यंत चिंताजनक पहलू है, जिसका त्वरित समाधान अत्यावश्यक है।