
लोकतंत्र में जनता की मुखर और प्रखर अभिव्यक्ति जरूरी
अनिल त्रिवेदी
गांधीवादी चिंतक और अभिभाषक
मानव सभ्यता के पास अभिव्यक्ति का लंबा अनुभव है। किसी के बोलने के लहजे या तौर तरीके से ही लोगों को प्राय: अंदाज हो जाता है कि बोलने वाला कैसा है। हमारी बोल-चाल मारक और तारक दोनों ही हो सकती है। हमारा मौन या चुप्पी भी अभिव्यक्ति है। हमारे बोलने से हल्ला, असहमति, अवमानना और विरोध हो सकता है, पर चुप रहना भी अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा हो सकती है। चुप रहने के भी कई अर्थ होते हैं। गहरे अर्थ होते हैं। लोग जब चुप होते हैं, तो उनका मौन वाचाल होता है। चुप रहना हमेशा तटस्थ होना नहीं होता। गहरी चुप्पी परिवर्तन की आहट होती है। कुछ लोग आवाज से परेशान होते हैं, तो कुछ आवाज को उठने नहीं देना चाहते। आवाज को समझना जरूरी है। सन्नाटा चुप्पी से अलग है। कोलाहल और फुसफुसाहट के गहरे अर्थ होते हैं। बोलने के लहजे या हाव-भाव से एकदम क्या कहा जा रहा है, यह समझ आ जाता है, पर चुप्पी का अर्थ खोजना होता है। आज लोग चुप क्यों हैं? यह भी अनुसंधान का विषय हो सकता है। क्या लोग भयभीत हैं ? क्या लोग संतुष्ट हैं? गहरी चुप्पी से पहले लोग सवाल उठाना बंद करते हैं। चुप्पी भी एक बड़ा और गहरा सवाल है। कई बार बोलना चुप रहने से बेहतर होता है, तो कभी बोलने से चुप रहना।
बोलना और चुप रहना दोनों ही अभिव्यक्ति हैं। आप संदेही है और चुप है तो संदेह निवारण या कबूल करवाने के लिए आपको बोलने के लिए बाध्य किया जाएगा। यदि निरन्तर सवाल पूछते हैं, तो आपको सवाल पूछने से रोका जाएगा। खुला समाज और संवैधानिक व्यवस्थाएं भी सवाल और बोलने पर निगरानी और नियंत्रण रखती हैं। सोए हुए व्यक्ति को हल्ला कर सोने न देना असभ्यता है और सोए हुए समाज या देश को आवाज देकर जगाना लोकतांत्रिक सभ्यता है। आज कल लोगों से ज्यादा व्यवस्था परेशान है कि कोई सवाल तो नहीं उठा रहा है। कई बार लोग इसलिए सवाल नहीं उठाते की व्यवस्था सुनती नहीं और कई बार सवाल इसलिए भी नहीं उठते कि आप के पास कोई जवाब ही नहीं है। व्यवस्था को बोलना कम सुनना-समझना ज्यादा चाहिए, पर आजकल व्यवस्था निरन्तर बोलती रहती है और सुनती-समझती कम है। सूचना तकनीक ने चौबीस घण्टे बारह महीने बोलते रहने की व्यवस्था कर दी है। इससे सुनने-समझने की सभ्यता के सामने संकट आ गया है। जब कहीं कोई सुनने-समझने को तैयार ही नहीं, तो लोगों ने बोलना ही कम कर दिया। लोगों की चुप्पी व्यवस्था की पहली पसंद है। लोक लुभावन बातों को बोलते रहने की व्यवस्था बढ़ गई, तो लोगों का सारा समय सुनने में ही चला जाता है। लोग चुप और व्यवस्था बोलती रहे, यह लोकराज के व्यवस्था तंत्र की नई व्यवस्था है।
सरकारें जब असरदार काम नहीं कर पातीं, तो लोगों को चुप्पी तोड़ बोलना होता है। लोगों की आवाज व्यवस्था तंत्र को असरदार बनाने में मदद करती है। अभिव्यक्ति की आजादी मानसिक गुलामी को खत्म कर लोक चेतना का विस्तार करती है। लोक और व्यवस्था दोनों परस्पर एक दूसरे पर आश्रित हंै। लोक चुप है, तो व्यवस्था अव्यवस्था का विस्तार करेगी। लोक चैतन्य होकर निर्भय है और अपने सवालों को लेकर संंघर्ष करते हैं, तो व्यवस्था लापरवाही कर ही नहीं सकती। लोगों की रात-दिन बिना थके और रुके परवाह करना ही लोकतांत्रिक व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। लोगों को अनसुना कर व्यवस्था का बोलते रहना नाम का लोकतंत्र है। व्यवस्था को निरन्तर सुनना और समाधान प्रस्तुत करना चाहिए और लोगों को लोकतंत्र में लोकशक्ति को चैतन्य बनाए रखते हुए अभिव्यक्ति को मुखर और प्रखर रखना चाहिए। चुप्पी या सन्नाटे से लोकतंत्र को भयतंत्र या भीड़तंत्र में नहीं बदलने देना चाहिए। लोकतंत्र में सन्नाटा या चुप्पी लोक की अवमानना है। लोकतंत्र में लोक जीवन्त और तंत्र लोक-संवेदना से परिपूर्ण होना चाहिए।
Published on:
14 Jul 2022 08:36 pm
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