
आर्द्रभूमि संरक्षण है कई समस्याओं का हल
शिव सिंह राठौड़
पृथ्वी एकमात्र ऐसा ग्रह है जहां जीवनयापन संभव है। वेदों में वर्णित जीवन प्रकृति यानी पांच तत्वों - जल, वायु, आकाश, अग्नि व पृथ्वी से ही मिलकर बना है। अत: हमारा जीवन इसी प्रकृति से शुरू होता है और इसी में विलीन हो जाता है। 'जल ही जीवन है', 'जल के बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं है' और 'जल है तो कल है' जैसी उक्तियां सहज ही जल तत्व का महत्त्व रेखांकित करती हैं। यही कारण है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ प्राकृतिक व परम्परागत जलस्रोतों का पीढ़ी दर पीढ़ी निर्माण करवाया गया। इसी कड़ी में आद्र्र या नम भूमि (वेटलैंड) महत्त्वपूर्ण जलस्रोत माने गए, जिनकी जल उपलब्धता के साथ पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) तथा जैव विविधता (बायो-डाइवर्सिटी) में अहम भूमिका है। इसका एक मुख्य कारण इनका दो तरह के पारिस्थितिकी तंत्रों - जलीय व स्थलीय - से मिलकर बनना है।
दरअसल, आद्र्रभूमि एक ऐसा समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र है जो जल संतृप्त होता है। ऐसे क्षेत्र में जलीय वनस्पति तथा उन पर निर्भर जीवों का बाहुल्य रहता है। आद्र्रभूमि लगभग वर्ष भर जल से परिपूर्ण रहती है तथा जल को प्रदूषण मुक्त बनाती है। भारत में आद्र्रभूमि ठंडे और शुष्क इलाकों से लेकर मध्य भारत में कटिबंधीय मानसूनी इलाकों और दक्षिण के नमी वाले इलाकों तक फैली हुई है। लेकिन अंधाधुंध शहरी विकास और शहरीकरण के चलते आद्र्रभूमि क्षेत्रफल में भारी कमी आई है। इसी विषय की गंभीरता के मद्देनजर 1971 में 2 फरवरी के दिन ईरान के रामसर शहर में आद्र्रभूमि सम्मेलन हुआ, जिसमें एक कन्वेंशन अपनाया गया था। आद्र्रभूमि संरक्षण और आमजन की जागरूकता के लिए विश्व में पहली बार 2 फरवरी 1997 को विश्व आद्र्रभूमि दिवस मनाया गया। पृथ्वी पर हमारे साथ-साथ वनस्पति, जीव-जंतु इत्यादि सभी का समान अधिकार है, इसलिए हर वर्ष आद्र्रभूमि दिवस एक अलग संदेश के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष का संदेश 'आद्र्रभूमि और जल' रखा गया।
भारत में अंतरराष्ट्रीय महत्त्व की 42 आद्र्रभूमि (रामसर साइट्स) चिह्नित हैं। केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राजस्थान) व चिलका झील (ओडिशा) को 1 अक्टूबर 1981 को भारत की पहली रामसर साइट के रूप में चिह्नित किया गया था। इसी कड़ी में आद्र्रभूमि (संरक्षण एवं प्रबंधन नियम) 2017, भारत में आद्र्रभूमि संरक्षण के लिए वैधानिक ढांचा भी प्रस्तुत करता है। भारत में अधिकांश आद्र्रभूमि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से गंगा, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी, ताप्ती जैसी नदियों से जुड़ी हैं। सूखती नदियां आद्र्रभूमि के लिए चुनौती हैं।
आधुनिक जीवन की वर्तमान परिस्थितियों में आद्र्रभूमि, प्रदूषण व अतिक्रमण से वंचित नहीं है। वर्तमान में वेटलैंड, वन क्षेत्र की तुलना में से तीन गुना अधिक गति से मानवीय क्रियाकलापों व ग्लोबल वार्मिंग के चलते लुप्त हो रही है। यह भारत में लगभग 4.7 प्रतिशत है परन्तु अधिकांश वनस्पति और जानवर इस पर निर्भर रहते हैं। प्रवासी पक्षी इसी वजह से आते भी हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरन्मेंट (सीएसई) के एक अध्ययन के अनुसार 2001 में अहमदाबाद में 137 झीलें थीं, पर 2012 में करीब 65 झीलें निर्माण कार्यों व अतिक्रमण की भेंट चढ़ गईं। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक गुवाहाटी की भारालु व बहिनी, वाराणसी की वरुणा व असी तथा पुणे की भुला व मुथा नदियां या तो लुप्त हो गईं या नालों में परिवर्तित हो गईं। देश में सैकड़ों वेटलैंड चिह्नित कर रामसर साइट घोषित की जा सकती हैं, जरूरत इच्छाशक्ति की है।
आद्र्रभूमि का महत्त्व इस बात से आंका जा सकता है कि मनुष्य और जीव-जंतुओं के लिए भोजन उपलब्ध कराने के कारण इसे 'बायोलॉजिकल सुपरमार्केट' कहते हैं। इसके अलावा आद्र्रभूमि जल को शुद्ध करती है तथा प्रदूषणकारी अवयवों को पृथक करती है। इसीलिए इन्हें 'किडनीज ऑफ द लैण्डस्केप' भी कहा जाता है। आद्र्रभूमि को सीवेज के शुद्धीकरण के लिए पायलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में बिजली की आवश्यकता नहीं है और यह कार्य सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से कम लागत में हो सकता है। इसके अतिरिक्त मनरेगा में मेड़ बंधी व जल संरक्षण कार्यों द्वारा नई आद्र्रभूमि विकसित करना भी उपयोगी होगा। इस तरह ग्रामीण क्षेत्रों के बाशिंदों को सतत आजीविका का साधन मुहैया कराया जा सकता है। समझना होगा कि आद्र्र-भूमि संरक्षण बिना, वैश्विक तापमान में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, घटते भूजल स्तर जैसी समस्याओं का हल संभव नहीं है।
हाल ही जारी ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2021 के अनुसार जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित शीर्ष १० देशों में भारत भी है। अत: आमजन को आद्र्रभूमि का आर्थिक व वैज्ञानिक महत्त्व समझा कर जागरूक करना अति आवश्यक है। आद्र्रभूमि को बचाने के लिए झीलों के आस-पास के क्षेत्र में नए उद्योगों तथा पुरानी इकाइयों के विस्तार, खतरनाक किस्म के कचरे - पॉलिथीन व नॉन-बायोडिग्रेडेबल ठोस कचरे, पक्के निर्माण आदि पर प्रतिबंध की आवश्यकता है। आद्र्रभूमि हमारी विरासत है। विश्व विरासत स्थलों की तरह ही इनके संरक्षण के प्रयास किए जाने चाहिए। सरकार के साथ आमजन की सहभागिता से ही यह संभव है।
(लेखक भूगर्भ विज्ञान विशेषज्ञ और राजस्थान लोक सेवा आयोग के सदस्य हैं)
Published on:
10 Feb 2021 08:01 am
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