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जिम्मेदार बने सरकार

‘अपना मकान’ हर आदमी का सपना होता है। पैसा देकर भी यह सपना पूरा नहीं हो, तो सरकार को चौकन्ना होना चाहिए।

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ghar ka sapna

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लगता है इस देश को ‘सरकारें’ नहीं, सुप्रीम कोर्ट चला रहा है। जो काम सरकारों को करना चाहिए, वो अदालत को करना पड़ रहा है। एक बिल्डर समूह का रजिस्ट्रेशन रद्द करने के साथ कंपनी के निदेशकों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग की जांच के भी आदेश दिए। जो काम देश की सर्वोच्च अदालत ने किया, क्या वह काम सरकार को नहीं करना चाहिए था? बात एक बिल्डर समूह की नहीं है। देश के हर शहर में लाखों निवेशक छत की आस में सालों तक बिल्डरों के कार्यालयों के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं, लेकिन उनकी सुनवाई करने वाला कोई नजर नहीं आता।

प्रशासन और जन प्रतिनिधियों से गुहार करते-करते सालों निकल जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को देश भर में अधूरी पड़ी योजनाओं की समीक्षा करने के साथ खरीदारों के हित सुरक्षित करने का आदेश दिया। ऐसे आदेश पहले भी आ चुके हैं, लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अदालत ने सख्ती के साथ कहा कि बिल्डर समूह आसमान की ऊंचाई तक धोखाधड़ी कर रहे हैं और ताकतवर लोगों का समूह उनके पीछे खड़ा है। समझने की बात ये है कि जो तथ्य अदालत को नजर आ रहे हैं, वो सरकार को क्यों नहीं दिखते?

मकान खरीदने के मामले में धोखाधड़ी के शिकार होने वाले लोगों की पहुंच इतनी नहीं होती कि वे अपनी बात मनवा सकें। कोई भी राज्य हो, आवासीय योजनाएं तय समय पर कहीं पूरी नहीं होतीं। न सरकारी योजनाएं और न निजी। सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेश के बाद केन्द्र को राज्य सरकारों को विश्वास में लेते हुए मकान खरीदारों की परेशानियों पर गंभीरता दिखानी चाहिए। उपभोक्ताओं के हितों को सुरक्षित रखने के लिए देश में कानूनों की कोई कमी नहीं है। जरूरत उन कानूनों को रसूखदारों पर लागू करके दिखाने की है। राजस्थान का उदाहरण सामने है। यहां 1100 आवासीय योजनाएं रजिस्टर्ड हैं।

इनमें से 60 फीसदी के समय पर पूरा होने के आसार नहीं हैं। रोटी और कपड़े के बाद मकान आम आदमी की मूलभूत जरूरत है। ‘अपना मकान’ हर आदमी का सपना होता है। पैसा देकर भी यह सपना पूरा नहीं हो, तो सरकार को चौकन्ना होना चाहिए। ये हकीकत है कि सिर्फ सरकार के भरोसे सभी को घर मुहैया नहीं हो सकता। निजी बिल्डरों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन उनकी धोखाधड़ी पर नजर रखने का काम तो सरकार को ही करना होग ा। ये सरकार की जिम्मेदारी है। उपभोक्ताओं को अदालत की शरण तभी लेनी पड़ती है, जब सरकार अपना काम ढंग से नहीं कर पाती।

अदालतों की तल्ख टिप्पणियों के बावजूद सरकारी अमला सुधरता नहीं है। सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले के बाद घर की आस लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं। इन उम्मीदों को पूरा करना भी सरकार का काम है और भविष्य में उपभोक्ताओं को सालों चक्कर लगाने से रोकना भी।