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जनमानस में क्षेत्रीय दलों के प्रति बदलाव क्यों

लोकसभा चुनावों में जनता क्षेत्रीय दलों की उपेक्षा करती है।भारत में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व काफी सालों से है, लेकिन मंडल आयोग के बाद भारतीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण शुरू हुआ।

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जनमानस में क्षेत्रीय दलों के प्रति बदलाव क्यों

जनमानस में क्षेत्रीय दलों के प्रति बदलाव क्यों

संजय कुमार, (प्रोफेसर, सीएसडीएस और लोकनीति के सहनिदेशक)

क्या क्षेत्रीय नेता जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने में विफल रहे? इस सवाल का जवाब सीधे 'हां' या 'ना' में नहीं दिया जा सकता। विभिन्न राज्यों में जब कभी क्षेत्रीय दलों को सरकार बनाने का मौका मिला है, तो इसके परिणाम मिले-जुले रहे हैं। कुछ राज्यों में क्षेत्रीय नेता और पार्टियां अत्यधिक लोकप्रिय हैं, जैसे-पश्चिम बंगाल, पंजाब, ओडिशा। कुछ अन्य राज्यों में पहली पीढ़ी के क्षेत्रीय नेता काफी लोकप्रिय रहे और जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य भी किया। मुश्किल यह है कि उनकी अगली पीढ़ी जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, जिससे असम, उत्तर प्रदेश और बिहार में राष्ट्रीय दलों को अवसर मिला।

कुछ राज्य ऐसे हैं, जहां जनता राज्य के लिए तो क्षेत्रीय दलों को फिट मानती है, लेकिन बात जब केंद्र सरकार चुनने की आती है तो क्षेत्रीय नेताओं को नकार देती है। दिल्ली इसका सटीक उदाहरण है। केंद्र सरकार चुनते समय जनता अलग मन से मतदान करती है। दिल्ली की जनता प्रदेश सरकार के लिए अरविंद केजरीवाल को चुनती है, लेकिन लोकसभा चुनाव में उनका समर्थन नहीं करती। तमिलनाडु जैसे राज्य में दो या दो से ज्यादा क्षेत्रीय दलों में सीधी प्रतिस्पद्र्धा देखी जाती है। कुल मिलाकर देखा गया है कि कई राज्यों में जनता का क्षेत्रीय नेताओं और पार्टियों से मोह भंग हो चुका है।

भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व काफी सालों से है, लेकिन 'मंडल आयोग' की राजनीति के बाद भारतीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण शुरू हुआ। उत्तर भारत के कई राज्यों की राजनीति में न केवल इनकी भूमिका अहम रही, बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा में कई वर्षों तक इनकी सरकार रही। क्षेत्रीय दलों की चुनावी सफलता इन दलों के प्रमुख नेताओं के प्रति जनता के विश्वास का ***** है, चाहे वे बिहार में लालू प्रसाद यादव हों, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव हों या ओडिशा में बीजू पटनायक।

ज्यादातर क्षेत्रीय दलों को सामाजिक न्याय के वादे से लोकप्रियता मिली है। इसी के बल पर क्षेत्रीय नेता चुनावों में व्यापक समर्थन जुटा पाते हैं, परन्तु एक या दो कार्यकाल तक सत्ता में रहने के बावजूद अगर ये नेता जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं कर पाते, तो जनता का इनसे मोह भंग होना शुरू हो जाता है। क्षेत्रीय नेताओं की दूसरी पीढ़ी जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाई, नवीन पटनायक इसका अपवाद हैं। पंजाब में भी अकाली दल की दूसरी पीढ़ी जनता की उम्मीदों पर उतना खरा नहीं उतर पाई। सुखबीर सिंह बादल अपने पिता प्रकाश सिंह बादल जितने मजबूत नहीं हो पाए। तमिलनाडु में क्षेत्रीय दलों के बीच राजनीतिक मुकाबले के चलते राष्ट्रीय दल वहां जगह नहीं बना पाए। वहां की जनता ने राष्ट्रीय नेताओं की बजाय क्षेत्रीय नेताओं पर कहीं अधिक भरोसा जताया है। अब तमिलनाडु के राजनीतिक हालात भी ऐसे हो गए हैं, जहां अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता और द्रमुक प्रमुख करुणानिधि के निधन के बाद दूसरी पीढ़ी के नेता इन दलों के मुखिया हैं। अन्नाद्रमुक ने पांच साल का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया और अब स्टालिन के नेतृत्व वाली द्रमुक की बारी है। पहली पीढ़ी के द्रविड़ नेता जनता की उम्मीदों पर खरा उतरे। अब बारी दूसरी पीढ़ी के नेताओं की है। देखना है कि वे जनता का भरोसा जीत पाएंगे या नहीं।

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी, ओडिशा में नवीन पटनायक, तेलंगाना में के.चंद्रशेखर राव व कुछ अन्य नेता सफलतापूर्वक जनता की उम्मीदों पर खरे उतरे हैं। विभिन्न राज्यों के इन अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय दलों के प्रति लोगों का रुझान मिलाजुला सा है। कुछ नेताओं पर जनता को पूर्ण भरोसा है, जबकि कुछ पर नहीं।