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आयकर क्यों…? जानिए नोटबंदी के बाद मौजूदा हालात

आयकर कानून हटा देंगे तो देश का सारा धन उत्पादकता में काम आने लगेगा। हमारा धन सड़े और बाहरी लोग (FDI) के नाम से देश की सम्पदा खरीदें, यह कहां तक उचित है?

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गुलाब कोठारी

धन न काला होता है, न ही सफेद। धन कभी आसमान से नहीं टपकता, कमाया जाता है। जिस देश की आधी जनता तो गरीबी रेखा -बीपीएल- के नीचे ही जीती हो, जिसने पांच सौ का नोट हाथ में भी नहीं लिया हो, उसके आगे कालेधन की चर्चा करना...?

उधर मुस्लिम समुदाय बैंकों में पैसा ही नहीं रखता- सूद खाने की इस्लाम में मनाही है। बच्चों और बूढ़ों को छोड़ दो तो आंकड़ा फिर 4 प्रतिशत के नीचे, अर्थात आयकर देने वालों तक सिमट जाता है। जहां आयकर लागू होता है, केवल और केवल वहीं पर कालाधन बसता है।

इन 4 प्रतिशत के किए (?) की सजा शेष 96 प्रतिशत को आज जिस तरह से मिल रही है, लोकतंत्र के परे की कल्पना है यह। आयकर कानून की अभी इस देश को जरूरत नहीं है। 70 साल में तो हम लोगों को रोटी-पानी भी नहीं दे पाए। आयकर कानून हटा देंगे तो देश का सारा धन उत्पादकता में काम आने लगेगा। हमारा धन सड़े और बाहरी लोग (FDI) के नाम से देश की सम्पदा खरीदें, यह कहां तक उचित है?

यह भी कहां तक उचित है कि केवल चार प्रतिशत आबादी के लिए इतने बड़े देश की सरकार अलग से कानून बनाए? क्या इतने से लोगों के व्यवहार से आर्थिक समता या विषमता संभव है? हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आयकर वसूलने का खर्च कितना है? तब बड़ा प्रश्न यह उठता है कि हमने आयकर कानून को आखिर किसलिए इतना प्रतिष्ठित कर रखा है?

नोटबंदी के बाद आज जिन परिस्थितियों से देश गुजर रहा है, उसमें तो 96 प्रतिशत आबादी त्राहि-त्राहि करने लगी है। और सरकार कहती है कि वह नोट बंद करके भारतीय अर्थव्यवस्था में घुन की तरह लग रहे कालेधन को निकाल लेगी।

माना जाता है कि, भारत में यह कुल जीडीपी का 23 से 26 प्रतिशत है जबकि सरकार ढाई साल में केवल सवा लाख करोड़ रुपए ही निकाल पाई है। तब कैसे एकत्र कर पाएंगे, सारा कालाधन? इस देश में कई मुख्यमंत्री ऐसे रह चुके हैं जिनके बारे में चर्चा है कि वे अपने कार्यकाल में सवा लाख करोड़ की इस राशि के आस-पास की राशि बटोर कर जा चुके हैं। तब इस सवा लाख करोड़ का कोई अर्थ सिवाय लीपापोती के नजर नहीं आता।

आयकर कानून का एक बड़ा प्रभाव देश के सामने यह आया कि देश के ये चार प्रतिशत 'कमाऊ पूत' आयकर विभाग की नजरों में चोर बनकर रह गए। एक ओर तो ये लोग देश के विकास-रथ के पहिये हैं और दूसरी ओर इनको ही सबसे बड़ा अपमान का घूंट पीना पड़ता है।

जितना अपमान इनका और इनके परिजनों का आयकर विभाग की ओर से छापे मारकर किया जाता है, उससे तो ये स्वयं को द्वितीय श्रेणी के नागरिकों से भी छोटा महसूस करते हैं। शायद आयकर कानून के पीछे यही राजनीति हो। केन्द्रीय सरकार के लिए लाख-दो लाख करोड़ की राशि सच में कोई अर्थ नहीं रखती। आज तो उनकी एक-एक योजना ही इस राशि से बड़ी होती है।

लोकतंत्र में विरोधियों पर मूक आक्रमण करने के लिए ही शायद ये हथियार जिंदा हैं। आज भी हम सुन रहे हैं कि भारत सरकार के अगले कदम अफसरों और नेताओं के विरुद्ध उठाए जाएंगे। ये बात स्वयं समय सिद्ध कर देगा कि जिनके यहां छापे पडेंग़े उनमें अधिकांशत: विरोधी पक्ष के निकलेंगे।

जनता तो आज स्पष्ट रूप से मान बैठी है कि इन छापों की शुरुआत आप, कांग्रेस, टीएमसी जैसे आक्रामक दलों से होगी। चर्चा तो यह भी है कि सरकार मीडिया पर भी खार खाए बैठी है।

हाल ही में मीडिया में एक खबर यह भी छपी थी कि बिना पूर्व स्वीकृति के किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच नहीं की जाए वर्ना उनका मनोबल टूट जाएगा। पिछले सालों में आपने कितने मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के यहां छापे पड़ते देखे। सत्ता पक्ष ही ऐसे कानूनों की परिभाषा सरकार की अनुकूलता देखकर तय करता है।

यहां आयकर कानून के बारे में जो अभिव्यक्ति श्रद्धेय पिताजी ने सन् 1986 एवं 1996 में की थी उसके भी कुछ अंश उद्धृत करना समीचीन होगा

'यह सर्वथा निन्दनीय है कि आयकर न देने वालों को चोर-डाकू की तरह बरता जाए। माना कि लोग कर चुराते हैं, परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि वे अपनी कमाई का एक हिस्सा देते भी हैं। इसकी व्याख्या यों नहीं की जा सकती कि उन्होंने चोरी की है या डाका डाला है किसी दूसरे की कमाई पर। यहां चोर-चोर में फर्क करना होगा।'

'करचोर को करचोर मानने से पहिले करदाता मानना होगा और दाता के साथ वैसा ही व्यवहार करना होगा। यह कितना बेहूदा-बर्बर या जंगली तरीका है कि करदाता के घर-दफ्तर पर फौज पलटन लेकर धावा बोल दिया जाए, घर घेर लिया जाए, उसकी बहू-बेटियों की तलाशी ली जाए, रसोई, स्नानघर या शयनकक्ष को खोदा जाए और खाना-पीना हराम कर दिया जाए। आयकर के नियमों में छापामारी का प्रावधान हो सकता है, परन्तु इसे हटाया जाना चाहिए।'

'वह वित्तमंत्री घोर दरिद्री ही होगा, जो इसको बड़ी उपलब्धि मानता हो।'

'हमें दृष्टिकोण बदलना होगा और कार्यप्रणाली भी। यह सोचना गलत है कि आयकर समाप्त होते ही अकस्मात असमानता बढ़ जाएगी। यदि यही एक तर्क है तो पहिले यह आकलन करवाया जाए कि आयकर कानून के कारण असमानता कम हुई है या नहीं। जिन-जिन देशों में आयकर लागू है वह एक विशेष आर्थिक अवस्था उत्पन्न होने के बाद लागू किया गया है।'

'आयकर कानून के पक्ष में भी बहुत कुछ कहा जाएगा। अर्थशास्त्री खासतौर पर इसे समर्थन देंगे, नौकरशाह हां में हां मिलाएंगे, नेता लोग ऐसा फैसला करने में कांपेंगे, परन्तु यह निश्चय है कि धरती रसातल में नहीं चली जाएगी। प्रयोग करने की तो बात है। परिणाम ठीक न हो, तो कानून फिर बनाया जा सकता है। धरती पर राज तो फिर भी कायम रहेगा ही।' (क.च. कुलिश)

आज नोटबंदी के इस वातावरण में हमें देश के गांवों का दौरा करना चाहिए। क्या सोचता है, आम आदमी? छूटते ही तो हर व्यक्ति यह कहता है कि, वाह! केन्द्रीय सरकार का यह निर्णय बिल्कुल सही है। इन भ्रष्टाचारियों के तो मार पडऩी ही चाहिए। फिर धीरे-धीरे उसकी आवाज बदलती है। एक तो वो यह नहीं मानता कि प्रभावशाली लोगों के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई हो सकती है।

राजनीति में सबकी एक उम्र होती है। उसके बाद वह भी आम आदमियों के साथ जुड़ जाता है। वह भी आम आदमी की तरह भ्रष्टाचारियों को कोसता है और यह भी मानता है कि, इससे छुटकारा संभव नहीं है। दावे कोई कितने भी कर ले। आज आम आदमी का चेहरा बोलते-बोलते तमतमाने भी लग जाता है। उसकी दो जून की रोटी गई। बच्चों की पढ़ाई के पैसे भी नहीं। सारी जिन्दगी की चर्चाएं (व्यापार) ठप्प हो गईं।

उसके सामने एक बड़ा प्रश्न यह है कि दु:ख की इस घड़ी में उसके पास पैसा होते हुए भी उसे भूखों मरना पड़ रहा है! गरीब तो बात करते ही टप-टप आंसू बहाने लगता है। ऐसी कोई ठौर उसे नजर नहीं आती जहां जाकर वो अपना दुखड़ा रो सके। और यह आबादी 96 प्रतिशत है। सारे नेता 4 प्रतिशत करदाताओं की छीना झपटी को लेकर सारे दिन बयानबाजी कर रहे हैं।

जिनका आम आदमी के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। भ्रष्टाचार 70 सालों से चल ही रहा है पर आम आदमी कभी भूखा नहीं सोया। आज भ्रष्टाचार मिटाने की कवायद में उसे भूखा सोना पड़ रहा है। यह कैसी प्रशासनिक दक्षता है? किसी ने इस बात का मनन नहीं किया कि गरीबी और अमीरी के बीच संघर्ष ऐसी ही परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। आने वाली पीढ़ी को जब इतिहास के इस तरह के पन्ने पढऩे को मिलेंगे तब क्या वह हमारे लोकतंत्र पर विश्वास कर पाएगी?

मुद्दे की बात यह है कि सरकार को कुछ फैसले राजनीति से ऊपर उठकर 'सर्वजन हिताय' में भी करने चाहिएं। यदि सारे ही फैसले, सरकार की सुरक्षा के लिए हों तब तो लोकतंत्र की बानगी भी शायद ना बचे। आज लोकतंत्र के तीनों पाये सत्ता पक्ष की कठपुतली बनते जा रहे हैं। और सत्ता पक्ष की प्राथमिकता विरोधियों से हिसाब चुकाने की हो गई है।

तब कोई भी कानून जनता के लिए तो 'आश्वासनों का आसव' ही होगा किन्तु यह कटु सत्य है कि देश के विकास को यदि गति देनी है, देश में अर्जित धन को यदि पूरी तरह से विकास में लगाना है, देश में कमाऊ पूतों के सम्मान का वातावरण बनाना है, नई पीढ़ी को आगे आने के लिए प्रोत्साहित करना है तब हमें संकल्प करना होगा कि, हमारे कानून केवल देशहित में बनाए जाएंगे।

उस दृष्टि से तो आज का यह आयकर-कानून तुरंत प्रभाव से निरस्त कर देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि, 'कोढ में खाज' हो जाए। पांच करोड़ लोगों को अहंकारवश फांसी देने पर भी इस देश का बड़ा नुकसान नहीं होगा। किन्तु सवा सौ करोड़ लोगों का सम्मानपूर्वक जीना आवश्यक है। आज तो सब दु:खी हैं।

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