
संयुक्त राष्ट्र पुनर्गठन से विश्व शांति प्रयासों को गति संभव
एन.एम. सिंघवी
प्रशासनिक सुधार मानव संसाधन विकास व जनशक्ति आयोजना समिति, राजस्थान के अध्यक्ष रहे हैं
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संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की जब भी चर्चा होती है तो जिक्र वीटो पावर का भी होता ही है जो इसके गिने-चुने सदस्य देशों को हासिल है। खास तौर से युद्ध की परिस्थितियों में हम यह देखते हैं कि संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में जो सदस्य देश शांति की बात करते हैं वे ही अपने हथियारों का कारोबार बढ़ाने के लिए दूसरे देशों को युद्ध के लिए उकसाते हैं। रूस और यूक्रेन के बीच लम्बे समय से चल रहा युद्ध इसका बड़ा उदाहरण है। हो यह भी रहा है कि जब युद्ध शुरू होता है तब संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर चिंतन तो शुरू होता है लेकिन हालात में मामूली सुधार नजर आने के साथ ही इस चिंतन पर विराम लग जाता है। जबकि होना यह चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र अपने प्रयासों से युद्ध ही न होने दे।
पहले विश्वयुद्ध के बाद से ही जब महाशक्तियों ने लीग ऑफ नेशन्स का गठन किया तब भी विश्व शांति के प्रयास का ही मसकद था। यह मकसद पूरा होता उससे पहले ही दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया। और, इसके बाद संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया। इसमें भी दूसरा विश्वयुद्ध जीतने वाले देशों ने मनमानी की और सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में जीतने वालों को ही वीटो का अधिकार दिया। साधारण शब्दों में कहें तो वीटो का अधिकार मनमर्जी का अधिकार है जो कथित पूंजीपति देशों को मिला हुआ है। न तो किसी देश की अर्थव्यवस्था को आधार बनाया गया और न ही जीडीपी को। दूसरा विश्वयुद्ध हारने वाले देश ताकतवर नहीं थे, ऐसा नहीं है। पर यहां भी दुनिया को दो खेमों में बांटने का काम संयुक्त राष्ट्र के जरिए किया गया।
बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर संयुक्त राष्ट्र कर क्या रहा है? क्या यह वक्त नहीं है जब संयुक्त राष्ट्र में भी लोकतंत्र की बात हो? क्या यह वक्त नहीं, जब विश्व के इस सबसे बड़े संगठन के पुनर्गठन के प्रयास हों? इन सवालों के जवाब हां में ही होंगे। इसकी वजह यह है कि वर्ष 1945 के विश्व समुदाय और आज की दुनिया में अंतर है। तब गिनती के देश आजाद थे और आज अधिकांश देशों में लोकतंत्र है। इसलिए जरूरत इस बात की भी है कि संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं में भी फैसले लोकतांत्रिक तरीके से हों। जब दुनिया में शांति प्रयासों की आवश्यकता हो तो वीटो जैसे पावर बाधक नहीं बनें। सुरक्षा परिषद के सभी सदस्यों का भी यूएन के सभी सदस्यों द्वारा निश्चित अवधि के लिए चुनाव हो। हर देश को उसकी आबादी के हिसाब से मताधिकार मिले। इससे एक तरह से हर देश के प्रत्येक व्यक्ति का यूएन में परोक्ष रूप से प्रतिनिधित्व हो जाएगा। सुरक्षा परिषद में चुने गए सभी सदस्यों को वीटो की शक्ति से वंचित किया जाना चाहिए। यानी जो भी निर्णय हों, वे दो तिहाई बहुमत से हों। लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्णय हो सकें इसके लिए स्पष्ट नियम बनाए जाने चाहिए। एक तरह से महा संयुक्त राष्ट्र बने जिसकी अपनी शांति सेना हो। यह सेना भी ऐसी हो, जिसमें भर्ती भी सदस्य देशों की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर हो। यह सेना भी उस देश की राजधानी के पचास किलोमीटर के क्षेत्र में तैनात हो जो महा संयुक्त राष्ट्र के निर्देश पर काम करे।
बात वित्त व्यवस्था की हो, तो महा संयुक्त राष्ट्र का आर्थिक भार भी सब देशों द्वारा उनकी जीडीपी के अनुपात में वहन किया जाना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि तीसरे महायुद्ध की परिस्थितियां बनें, इससे पहले ही मौजूदा संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन की कवायद शुरू कर दी जाए। दीर्घकालीन शांति के वास्तविक प्रयासों के लिए यह जरूरी है कि रक्षा कवच के नाम पर दो या अधिक देशों के बीच नाटो या ऐसे ही दूसरे संगठन भी न हों। इस वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के लिए जनमत तैयार करने का वक्त आ गया है।
Published on:
28 Jun 2023 10:32 pm
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