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वो 8 निजी सेनाएं, जिन्होंने बिहार को बना दिया था नर्क

आज से 20 साल पहले वह बिहार का बहुत तनावपूर्ण और शर्मनाक दौर था। 1 दिसंबर 1997 को हुए लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को लोग भूले नहीं हैं, जब 62 लोग मार दिए गए थे

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लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को लोग भूले नहीं हैं

लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को लोग भूले नहीं हैं

पटना . वह बिहार का एक अत्यंत तनावपूर्ण और शर्मनाक दौर था। आज से 20 साल पहले संयुक्त बिहार के अनेक जिलों में निजी सेनाओं का आतंक बहुत हावी था और 1 दिसंबर 1997 को हुए लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को आज भी लोग भूले नहीं हैं, जब निचली जाति के 62 लोग मौत की घाट उतार दिए गए थे, जिसमें महिलाएं व बच्चे भी शामिल थे। यह अच्छी बात है कि इन सेनाओं पर धीरे-धीरे शासन-प्रशासन का शिकंजा कसता गया और बिहार नर्क के एक लंबे दौर से बाहर निकल आया।

लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार
एक उच्च जाति द्वारा समर्थित रणवीर सेना ने 1 दिसंबर 1997 को इस नरसंहार को अंजाम दिया था। इस नरसंहार का बदला भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) के लड़ाकों ने 10 जनवरी 1998 को रणवीर सेना के 9 समर्थकों की निर्मम हत्या करके लिया। तब बिहार में सेनाओं के बीच परस्पर बदला लेने का दुखद सिलसिला चलता रहता था।

8 निजी सेनाओं का आतंक
बिहार में एक समय 8 निजी सेनाएं थीं। वर्ष 1971 में पहली बार दो निजी सेनाएं बनी थीं। लाल सेना अर्थात एमसीसी (माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर) और पार्टी युनिटी की लाल स्क्वायड। इनका सम्बंध वामपंथी नक्सलियों से था। इन उग्र संगठनों ने निर्मम हत्याएं कीं। वाम उग्र संगठन आपस में भी लड़ते थे। इन संगठनों का प्रभाव वर्तमान झारखंड के इलाकों में ज्यादा था। जहां दो सेनाएं उग्र वामपंथियों की थीं, वहीं 6 सेनाएं भू-स्वामियों, मुस्लिमों, ऊंची जातियों की थीं। ये सेनाएं जायदाद और इलाके पर अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही थीं।

बिहार में किस वर्ष बनी कौन-सी निजी सेना
1971 - लाल सेना और लाल स्क्वायड
1978 - कुंवर सेना
1979 - भूमि सेना
1981 - बह्मर्षी सेना
1985 - लोरिक सेना
1989 - सनलाइट सेना
1994 - रणवीर सेना

चुनावों में भी हिस्सा लेती थी सेनाएं
वर्ष 1997 के विधानसभा चुनाव में उग्र संगठन भाकपा-माले के 6 सदस्य विधानसभा के लिए भी चुने गए थे। विधानसभा में जहां वाम संगठनों को सफलता मिल जाती थी, वहीं उच्च जातियों-समूहों के राजनीतिक उम्मीदवार केवल अपनी मजबूत स्थिति सिद्ध करके हार जाते थे।

कैसे खत्म हुई ये सेनाएं?
बिहार विभाजन, झारखंड गठन, पुलिस सुरक्षा, चुनाव सुधार और सरकार की नीतियों की वजह से इन निजी सेनाओं के आतंक का दौर खत्म हुआ। बिहार में इन निजी सेनाओं के खत्म होने का कुछ श्रेय तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन को भी दिया जाना चाहिए। जब चुनाव में कड़ाई हुई, तो सेनाओं की भूमिका कम होती गई, सामाजिक सुधार को भी बल मिला।

कितने लोग मारे जाते थे?
यदि केवल चार वर्ष - 1994 से 1997 के आंकड़ों को देखें, तो 1000 से ज्यादा लोग निजी सेना द्वारा किए गए नरसंहार के कारण मारे गए थे। 440 से ज्यादा हिंसक लड़ाकों, उग्रवादियों को मारा गया था और 53 से ज्यादा पुलिसकर्मी शहीद हुए थे।