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40 सीटें तय करेंगी कि पटना की कुर्सी पर इस बार NDA बैठेगा या महागठबंधन की वापसी होेगी?

2010 में जदयू-बीजेपी गठबंधन ने रिजर्व सीटों पर बड़ी बढ़त बनाई थी और इनमें दोनों दलों को क्रमश: 20-20 सीट मिली थीं।

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पटना

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Ashish Deep

Sep 20, 2025

Bihar Assembly Elections 2025 : नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव में सीधा मुकाबला होगा। (फोटो सोर्स : ANI)

बिहार की राजनीति में जाति का फैक्टर सबसे ज्यादा काम करता है। प्रदेश का चुनावी इतिहास खंगाले तो पाएंगे कि जिस भी दल के उम्मीदवार जितनी ज्यादा सुरक्षित सीट पर जीते हैं, उसे ही सत्ता का सुख भोगने का मौका मिला है। आजादी के बाद से लेकर अब तक के सभी विधानसभा चुनावों में जिस पार्टी ने इन सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया, वही सत्तासीन हुई। 243 विधानसभा सीटों में इन सीटों की संख्या फिलहाल 40 है, जिन्हें राजनीति का असली बैरोमीटर माना जाता है।

सत्ता तक पहुंच का रास्ता

बिहार विधानसभा की कुल 40 सीटों में 38 एससी और 2 एसटी के लिए सुरक्षित हैं। दिलचस्प बात यह है कि 1952 से लेकर 2020 तक हर चुनाव में आरक्षित सीटों पर जीत का प्रतिशत लगभग सीधे सत्ता के समीकरण से जुड़ा रहा है। उदाहरण के लिए 2010 में जदयू-बीजेपी गठबंधन ने इन सीटों पर बड़ी बढ़त बनाई थी और इनमें दोनों दलों को क्रमश: 20-20 सीट मिली थीं। वहीं 2015 में महागठबंधन ने आरक्षित सीटों पर शानदार प्रदर्शन किया और सत्ता में वापसी की।

2015 में कैसा रहा था चुनावी पैटर्न

2015 में जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, तब महागठबंधन ने 243 में से 178 सीटें जीतीं। इनमें से सुरक्षित सीटों पर उन्हें बड़ी बढ़त मिली थी। इससे साफ हो गया कि बिहार की सत्ता की चाभी अब भी इन 40 सीटों के इर्द-गिर्द घूम रही है।

2020 में बना नया समीकरण

2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए को बहुमत मिला, लेकिन यहां भी आरक्षित सीटों का निर्णायक रोल रहा। बीजेपी और जदयू ने मिलकर इन सीटों पर मजबूती दिखाई, खासकर एससी बेल्ट में। दलित और महादलित वोटरों का झुकाव, जिस ओर भी गया सत्ता का तराजू उसी दिशा में झुक गया।

आरक्षित सीटों का सामाजिक गणित

राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि बिहार की राजनीति जातीय समीकरण पर टिकी है। आरक्षित सीटों का मतलब है कि यहां पिछड़ा, अति पिछड़ा और आदिवासी वोटर निर्णायक होते हैं। ये तबका समाज का वह हिस्सा है, जो लंबे समय तक उपेक्षित रहा और आज भी विकास, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों से जूझ रहा है। इसलिए राजनीतिक दल इनके बीच विकास और प्रतिनिधित्व का वादा करके सीधा संवाद साधते हैं।

पिछले विस चुनाव में दलों का हाल
सालसरकार बनी बीजेपीजदयूमहागठबंधन
अक्टूबर 2005एनडीए111610
2010एनडीए20200
2015महागठबंधन-1121
2020महागठबंधन फिर एनडीए10814

क्यों हैं ये सीटें अहम?

  1. मतदाता अनुशासित और निर्णायक : आरक्षित सीटों के मतदाता आमतौर पर ब्लॉक वोटिंग करते हैं। एक बार जिस पार्टी की तरफ झुकाव हो गया, पूरा समाज उसी के साथ खड़ा रहता है।
  2. छोटा अंतर, बड़ा असर : बिहार में अक्सर सीटों का अंतर बहुत कम होता है। 2020 में एनडीए और महागठबंधन के बीच महज कुछ सीटों का फासला था। ऐसे में 40 आरक्षित सीटों का प्रदर्शन निर्णायक साबित होता है।
  3. राजनीतिक संदेश : दलित और महादलित समाज का साथ पाना सिर्फ चुनावी गणित नहीं बल्कि सामाजिक वैधता का भी प्रतीक है। इसलिए इन सीटों पर जीत किसी भी दल के लिए नैरेटिव बदलने का काम करती है।

दलों की आगे क्या हो सकती है रणनीति

राजद : लालू यादव की परंपरागत ‘MY समीकरण’ (मुस्लिम-यादव) के साथ दलित वोटों को जोड़ने की कोशिश।
जेडीयू : नीतीश कुमार का 'महा-दलित' कार्ड अब भी असरदार हो सकता है।
बीजेपी : रामविलास पासवान के निधन के बाद लोक जनशक्ति पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाकर अति पिछड़ा वोटों को अपनी तरफ खींचने की रणनीति।
कांग्रेस और छोटे दल : सीमांचल और एसटी बेल्ट में छोटी-छोटी जीत की कोशिश, जो बाद में गठबंधन में सौदेबाजी का आधार बनेगी।