
बटियागढ़ ब्लॉक के शहजादपुरा, जलना, हटा ब्लॉक के मडिय़ादों में बछामा सहित दर्जन भर से अधिक गांव हैं। तेंदूखेड़ा ब्लॉक में ऐसे 5 से अधिक गांव हैं। वहीं जबेरा ब्लॉक में भी 10 से अधिक आदिवासी गांवों के लोगों की पेयजल की पूर्ति जंगलों, पहाड़ों की चढ़ाई उतरने के बाद झिरियों से पानी भरने के बाद चढ़ाई चढऩे की मजबूरी सदियों से बनी हुई हैं।

हम यहां एक तस्वीर बटियागढ़ ब्लॉक के केरबना गांव से लगी हनमत घाटी से जंगल में 5 किलोमीटर दूर स्थित जलना गांव की प्रस्तुत कर रहे हैं। खड़ेरी के पत्रिका खबर सैनानी ने आदिवासी गांव जलना का भ्रमण किया तो तस्वीर चौकानें वाली थी। गांव से डेढ़ किमी दूर पहाड़ी से 70 फुट नीचे पथरीले रास्ते पर युवतियां व महिलाएं सिर पर बर्तन रखकर पहाड़ी चढ़ रहीं थीं।

रास्ते में बड़े-बड़े पत्थर यदि जरा सी नजर चूकी या उपट्टा लगा तो सीधे पहाड़ी के नीचे गिरने का अंदेशा बना रहता है। कुछ पल के लिए यूं लगा कि ये महिलाएं व युवतियां अपनी जान जोखिम में डालकर पेयजल संकट से जूझ रही हैं।

प्राकृतिक झिरिया वरदान साबित हो रहीं जंगलों और पहाड़ों पर सदियों से निवासरत आदिवासी इलाकों में भले ही वर्तमान सरकारें इनके लिए वरदान साबित न हो रही हो, लेकिन प्राकृतिक झिरिया जो महज 2 से 3 फुट गहराई वाले गड्ढों की शक्ल में है, यह कभी खाली नहीं होती है। पानी भी ऐसा कि बर्तन में रखने पर बॉटल में बंद मिनीरल वॉटर की शुद्धता को पीछे छोड़ दे। जिससे इन आदिवासियों के लिए प्राकृतिक झिरिया वरदान साबित हो रही हैं।

सरकारी हैंडपंप हुए बेकार जलना गांव की सुशीला बाई, क्रांतिबाई ने बताया कि गांव में केवल 2 हैंडपंप लगे हैं, जिनमें से एक में दुर्गंध युक्त पानी निकलता है। जिसमें कसेला स्वाद होने से पीने योग्य नहीं है। दूसरा चला-चलाकर हाथ भर आते हैं और एक कुप्पा पानी नहीं निकलता है। जिससे डेढ़ किमी झिरिया से पानी भरने की मजबूरी बनी हुई है।

मवेशी भी उतरते हैं पहाड़ी ऐसा नहीं है यह झिरिया अकेले ग्रामीणों की प्यास बुझा रही हो, जलना गांव के जितने भी मवेशी हैं, वह यहां पानी पीने आते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि यहां वन्य प्राणी भी हैं जिनमें भालू, हिरण, तेंदुआ भी पानी के लिए इसी झिरिया का पानी प्रयोग करते हैं। वन्य प्राणी रात में आते हैं।

खरीददारी के लिए 15 किमी का सफर जलना गांव में 300 आदिवासी परिवार निवासरत हैं। यह प्राचीन जीवन शैली पर पत्थरों के मकानों में निवासरत है। दैनिक उपभोग की आवश्यकताओं के लिए दुर्गम पहाड़ी रास्ते से पैदल 15 किमी का सफर करने के बाद खड़ेरी गांव पहुंचते हैं। सड़क, बिजली और पानी के लिए यहां के आदिवासी लगातार गुहार लगा रहे हैं, लेकिन विधायक बने, सरकारें आई गईं किसी ने इनकी सुध नहीं ली, जिससे यह अपने हाल पर पहाड़ी रास्तों से पैदल चलते हुए जीवन गुजार रहे हैं।