वैसे तो महादेव के कई तीर्थस्थल हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक ऐसा तीर्थस्थल भी है जो भगवान शिव से आज भी जुड़ी हुई है। यहां तक कि मान्यता है कि कुछ वर्षों पूर्व तक यहां आने वाले हर व्यक्ति की चुटकियों में मनोकामना पूर्ण हो जाती थी, ऐसे में कई बार मन्नत का दुरुपयोग भी होता था, ऐसे में आदि शंकराचार्य के द्वारा ही इस स्थान को कीलित किया गया। ताकि कोई यहां मिलने वाले आशीर्वाद का दुरुपयोग न कर सके।
दरअसल देवनगरी या देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखंड में एक धार्मिक स्थल है, जिसका नाम है जागेश्वर धाम... खास बात यह है कि इस तीर्थस्थल का उल्लेख हमारे पुराणों और ग्रंथों में भी मिलता है।


ऐसे में देवदार के पेड़ मिलने व कई अन्य कारणों से वहीं कई लोगों का मानना है कि यह ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा के समीप जागेश्वर नामक जगह पर स्थित है। जागेश्वर धाम योगेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि जागेश्वर का प्राचीन मृत्युंजय मंदिर धरती पर स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों का उद्गम स्थल है।
पार्वती सहित विराजते हैं यहां...
ऐसी मान्यता है कि देवाधिदेव महादेव यहां आज भी वृक्ष के रूप में मां पार्वती सहित विराजते हैं। देवदार के घने वृक्षों से घिरी यह घाटी एक मनोहारी तीर्थस्थल है। मान्यता है कि भगवान शिव-पार्वती के युगल रूप के दर्शन यहां आने वाले श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित नीचे से एक और ऊपर से दो शाखाओं वाले विशाल देवदार के वृक्ष में करते हैं। यह बहुत प्राचीन पेड़ बताया जाता है।
जागेश्वर धाम के मंदिर समूह में दो सबसे प्रमुख मंदिर हैं, एक श्री ज्योर्तिलिंग जागेश्वर मंदिर व दूसरा विशाल और सुंदर मंदिर महामृत्युंजय महादेव जी के नाम से विख्यात है। जागेश्वर में लगभग 250 छोटे-बड़े मंदिर हैं। जागेश्वर धाम के इस मंदिर में 124 मंदिरों का एक समूह है, जो अति प्राचीन है।


यह भी मान्यता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के पुत्रों लव-कुश ने अपने पिता की सेना से युद्ध किया था, राजा बनने के बाद वे यहां आए थे। दरअसल लव-कुश अज्ञानतावश किए युद्ध के प्रायश्चित के लिए इस जगह पर ही यज्ञ आयोजित किया था, जिसके लिए उन्होंने देवताओं को आमंत्रित किया था। कहा जाता है कि लव-कुश ने ही सर्वप्रथम इन मंदिरों की स्थापना की थी। वह यज्ञ कुंड आज भी यहां विद्यमान है। रावण, पांडव और मार्कण्डेय ऋषि द्वारा जागेश्वर धाम में शिव पूजन का उल्लेख मिलता है। यहां पांडवों के आश्रय होने के आज भी अनेक मूक साक्ष्य मिलते हैं, हालांकि मंदिर का निर्माण किसने किया इसके बारे में साक्ष्य प्रमाण नहीं मिल पाए हैं।
जागेश्वर धाम को कोई 1 हजार तो कोई 2 हजार साल पुराना बताता है। लिखित साक्ष्य न होने से भारतीय इतिहास प्रामाणिकता से ज्यादा यह मंदिर अटकलों का शिकार है। मंदिर की दीवारों पर ब्राह्मी और संस्कृत में लिखे शिलालेखों से इसकी निश्चित निर्माणकाल के बारे पता नहीं चलता है। हालांकि पुरातत्वविदों के अनुसार मंदिरों का निर्माण 7वीं से 14वीं सदी में हुआ था। इस काल को पूर्व कत्यूरी काल, उत्तर कत्यूरी व चंद तीन कालों में बांटा गया है।

चंद्र राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटल श्रद्धा थी। देवचंद्र से लेकर बाजबहादुर चंद्र तक ने जागेश्वर की पूजा-अर्चना की। बौद्ध काल में भगवान बद्री नारायण की मूर्ति गौरी कुंड और जागेश्वर की देव मूर्तियां ब्रह्मकुंड में कुछ दिनों पड़ी रहीं। जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने इन मूर्तियों की पुनर्स्थापना की।
नागर शैली से बने मंदिर
जागेश्वर धाम में सारे मंदिर केदारनाथ शैली यानी नागर शैली से बने हुए हैं। अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध इस मंदिर को भगवान शिव की तपस्थली के रूप में भी जाना जाता है। स्थानीय लोगों के विश्वास के आधार पर इस मंदिर के शिवलिंग को नागेश-लिंग घोषित किया गया। इस मंदिर के किनारे एक पतली सी नदी की धारा भी बहती है।
यह एक मनोहारी तीर्थस्थल और यहां की खूबसूरती वाकई देखने वाली है। हर वर्ष यहां सावन के महीने में श्रावणी मेला लगता है। देश ही विदेश से भी यहां भक्त आकर भगवान शंकर का रूद्राभिषेक करते हैं। यहां रूद्राभिषेक के अलावा, पार्थिव पूजा, कालसृप योग की पूजा, महामृत्युंजय जाप जैसे पूजन किए जाते हैं। महाशिवरात्रि पर भी यहां विशेष आयोजन किए जाते हैं और इस अवसर पर यहां पर भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं।